Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 97
________________ [ 76 ] रहा था । वह सिंहासन सुवर्ण का ऊँचा बना हुआ था, अतिशय शोभायुक्त था और कान्ति से सूर्य को भी लज्जित कर रहा था, तब ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्र भगवान् की सेवा करने के लिये सिंहासन के बहाने से सुमेरू पर्वत ही अपनी कान्ति से देदीप्यमान शिखर को ले गया हो जिससे निकलती हुई किरणों से समस्त दिशायें व्याप्त हो रही थीं, जो बड़े भारी ऐश्वर्य से प्रकाशमान हो रहा था, जिसका आकार लगे हुये सुन्दर रत्नों से अतिशय श्रेष्ठ था और जो नेत्रों को हरण करने वाला था, ऐसा वह सिंहासन बहुत ही शोभायमान हो रहा था । जिसका आकार बहुत बड़ा और देदीप्यमान था, जिससे कान्ति का समूह निकल रहा था, जो श्रेष्ठ रत्नों से प्रकाशमान था और जो अपनी शोभा से मेरू पर्वत की भी हँसी करता था ऐसा वह सिंहासन बहुत अधिक सुशोभित हो रहा था। 25 to 28 । (आदि पुराण) । विष्टरं तदलंचके भगवानाद्वितीर्थकृतत् । चतुभिरङ्गालेः स्वेन महिम्ना स्पृष्टतत्तलः ॥29॥ प्रथम तीर्थंकर भगवान वृषभदेव उस सिंहासन को अलंकृत कर रहे थे । वे भगवान् अपने महात्म्य से उस सिंहासन के तल से चार अंगुल ऊँचे अधर विराजमान थे। वे उस सिंहासन के तल भाग को स्पर्श ही नहीं किये थे ॥29॥ (2) पुष्पवृष्टि तत्रासीनं तमिन्द्राधाः परिचेरूमहेज्यया। पुष्पवृष्टिं प्रवर्षन्तो नभोमार्गाद् घना इव ॥30॥ उसी सिंहासन पर विराजमान हुए भगवान् की इन्द्र आदि देव बड़ी-बड़ी पूजाओं द्वारा परिचर्या कर रहे थे और मेघों की तरह अकाश से पुष्पों की वर्षा कर रहे थे। मदोन्मत्त भ्रमरों के समूह से शब्दायगान तथा आकाशरूपी आँगन को व्याप्त करती हुई पुष्पों की वर्षा ऐसी पड़ रही थी मानो मनुष्यों के नेत्रों की माला ही हो। द्विषड्यो जनभूभागमामुक्ता सुरवारिदैः। पुष्पवृष्टिः पतन्ती सा व्यधाच्चित्रं रजस्ततम् ॥32॥ देवरूपी बादलों द्वारा छोड़ी जाकर पड़ती हुई पुष्पों की वर्षा ने बारह योजन तक के भूभाग को पराग (धूलि) से व्याप्त कर दिया था, यह एक भारी आश्चर्य की बात थी। यहाँ पहले विरोध मालूम होता है क्योंकि वर्षा से तो धूलि शान्त होती है न कि बढ़ती है परन्तु जब इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि पुष्पों की वर्षा थी और उसने भूभाग को पराग अर्थात् पुष्पों के भीतर रहने वाले केशर के छोटेछोटे कणों से व्याप्त कर दिया था तब वह विरोध दूर हो जाता है यह विरोधाभास अलंकार कहलाता है। स्त्रियों को सन्तुष्ट करने वाली वह फूलों की वर्षा भगवान् के समीप पड़ रही थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो स्त्रियों के नेत्रों की सन्तति ही भगवान् के समीप पड़ रही हो। भ्रमरों के समूहों के द्वारा फैलाये हुये फूलों के पराग से सहित तथा देवों के द्वारा बरसाई वह पुष्पों की वर्षा बहुत ही अधिक

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