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धन की वर्षा
प्रावृषेण्याम्बुधारेव वसुधारा वसुन्धराम् ।
दिवोऽन्वर्थाभिधानत्वं नयतीन्यपतत्यथि ॥5॥ धन की बड़ी मोटी धारा वर्षा ऋतु के मेघ की जलधारा के समान पृथिवी के वसुन्धरा नाम को सार्थकता प्राप्त कराती हुई आकाश से मार्ग में पड़ने लगी। कमलमयी पंक्तियाँ
ये द्वे (यन् द्वे) पूर्वोत्तरे पङ्क्ती हेमाम्बुजसहत्रयोः ।
सहस्रपत्रं तत्पूतं भुवः कण्ठे गुणाकृती ॥7॥ सर्वप्रथम देवों ने एक ऐसे सहस्र दल पवित्र कमल की रचना की जो पूर्व और उत्तर की ओर स्वर्णमय हजार-हजार कमलों की दो पंक्तियाँ धारण करता था तथा वे पंक्तियां ऐसी जान पड़ती थीं मानो पृथिवी रूपी स्त्री के कण्ठ में पड़ी दो मालाएँ ही हों।
पद्मरागमयं भास्वच्चित्ररत्नविचित्रतम् । प्रवृत्तप्रतिपत्रस्थ पद्माभागमनोहरम् ॥8॥ सहस्राक्ष सहस्राक्षि भृङ्गावलि निषेवितम् । देवासुरनरालोकमधुपापानमण्डलम् ॥9॥ पद्मोद्भासि परं पुण्यं पायानं प्रकाशते ।
सद्यो योजन विषकम्भं तच्चतुर्भागणिकम् ॥10॥ वह कमल पद्मराग मणियों से निर्मित था, देदीप्यमान नाना प्रकार के रत्नों से चित्र-विचित्र था, प्रत्येक पत्र पर स्थित लक्ष्मी के भाग से मनोहर था, इन्द्र के हजार नेत्ररूपी भ्रमरावली से सेवित था, देव, धरणेन्द्र और मनुष्यों के नेत्ररूपी भ्रमरों के लिए मानो मधुगोष्ठी का स्थान था, लक्ष्मी से सुशोभित था, परम पुण्य रूप था, एक योजन विस्तृत था और उसके चौथाई भाग प्रमाण उसकी कणिकाडण्ठल थी। 8-10॥
महिमाग्रे सुरेशाष्टमूर्तिस्पष्ट गुणश्चियः । वसवोऽष्टौ पुरोधाय वासवं वरिवस्यया ॥11॥ जय प्रसीद मर्तुस्ते वेला लोकहितोद्यमे ।
जातायेत्यानमन्तीशं स हि विश्वसृजो विधिः ॥12॥ यह कमल पद्मयान के नाम से प्रसिद्ध था। सेवा द्वारा इन्द्र को आगे कर 8 वसु उस ममयान के आगे-आगे चल रहे थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो इन्द्र के अणिमा, महिमा आदि 8 गुण ही मूर्तिधारी हो चल रहे हों। वे वसु यह कहते हुए भगवान् को प्रणाम करते जा रहे थे कि हे भगवन् ! आप जयवन्त हो, प्रसन्न होइए, लोकहित के लिए उद्यम करने का आज समय आया है। यथार्थ मे वह सब भगवान् का महात्म्य था ॥ 11-12 ॥