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पद्मा सरस्वतीयुक्ता परिवारात्तमङ्गला । पद्महस्ता पुरो याति परीत्य परमेश्वरम् ॥27॥
जिनके परिवार की देवियों ने मंगलद्रव्य धारण कर रखे थे तथा जिनके हाथों में स्वयं कमल विद्यमान थे, ऐसी पद्मा और सरस्वती देवी, भगवान् की प्रदिक्षणा देकर उनके आगे-आगे चल रही थीं ।
प्रसीदेत इतो देवेत्यानम्य प्रकृताञ्जलिः ।
तदभूमिपतिभिः सार्धं पुरो याति पुरन्दरः ॥28॥
हे देव ! इधर प्रसन्न होइए, इधर प्रसन्न होइए। इस प्रकार नमस्कार कर जिसने अंजलि बाँध रखी थी ऐसा इन्द्र तद्-तद् भूमिपतियों के साथ भगवान् के आगेआगे चल रहा था ।
एवमीशस्त्रिलोकेशपरिवार परिष्कृतः ।
लोकानां भूतये भूतिमुद्वहन् सार्वलौकिकीम् ॥29॥ पद्मातुः पवित्रात्मा परमं पद्मयानकम् । भव्य पद्मकसद् बन्धुर्य दारोहति तत्क्षणात् ॥30॥ जय नाथ जय ज्येष्ठ जय लोकपितामह । जयात्मभूर्जयात्मेश जय देव जयाच्युत ॥31॥ जय सर्वजगद्बन्धो जय सद्धर्मनायक । जय सर्वशरण्यश्रीजय पुण्यजयोत्तम ॥32॥ इत्युदीर्णसुकृद्घोषो रून्धानो रोदसी स्फुटः । जपत्युच्चोऽतिगम्भीरो घनाघनघनध्वनिः ॥33॥
इस प्रकार जो तीनों लोकों के इन्द्र उनके परिवार से घिरे हुये थे, लोगों की विभूति के लिए जो समस्त लोक की विभूति को धारण कर रहे थे, जो कमल की पताका से सहित थे । जिनकी आत्मा अधिक पवित्र थी और जो भव्य जीवरूपी कमलों को विकसित करने के लिये उत्तम सूर्य के समान थे, ऐसे भगवान नेमि जिनेन्द्र जिस समय उस पद्मयान पर आरूढ़ हुये उसी समय देवों ने मेघ गर्जना के समान यह शब्द करना शुरू कर दिया कि हे नाथ ! आपकी जय हो, हे ज्येष्ठ ! आपकी जय हो, हे लोकपितामह ! आपकी जय हो, हे आत्मभू ! आपकी जय हो, हे आत्मेश ! आपकी जय हो, हे देव ! आपकी जय हो, हे अच्युत ! आपकी जय हो, हे समस्त जगत् के बन्धु ! आपकी जय हो, हे समीचीन धर्म के स्वामी ! आपकी जय हो, हे सबके शरणभूत लक्ष्मी के धारक ! आपकी जय हो, हे पुण्यरूप ! आपकी जय हो, हे उत्तम !
आपकी जय हो । इस प्रकार उठा हुआ एवं मेघ गर्जना की तुलना करने वाले वह व्याप्त करता हुआ अत्यधिक सुशोभित हो
पुण्यात्मा जनों का जोरदार, अत्यन्त गम्भीर शब्द आकाश और पृथ्वी के अन्तराल को रहा था ।