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[ 104 ] मूसल, लांगल (हल) गदा और रत्नावली (हार) ये चार रत्न सभी (नौ) बलदेवों के यहां शोभायमान रहते हैं।
बलदेव आदि तीनों की पर्यायान्तर-प्राप्ति अणिदाण-गदा सव्वे, बलदेवा केसवा णिदाण-गदा।
उड्ढंगामी सव्वे, बलदेवा केसवा अधोगामी ॥1444॥ सब बलदेव निदान रहित और सब नारायण निदान सहित होते हैं। इसी प्रकार सब बलदेव ऊर्ध्वगामी (स्वर्ग और मोक्षगामी) तथा सब नारायण अधोगासी (नरक जाने वाले) होते हैं।
णिस्सेयसमट्ट गया, हलिणो चरिमो दु बम्हकप्प-गदो।
तत्तो कालेण मदो, सिज्झदि किण्हस्स तित्थम्मि ॥1449॥
आठ बलदेव मोक्ष और अन्तिम बलदेव ब्रह्मस्वर्ग को प्राप्त हुए हैं । अन्तिम बलदेव स्वर्ग से च्युत होकर कृष्ण के तीर्थ में (कृष्ण इसी भरत क्षेत्र में आगमी चौबीसी के सोलहवें तीर्थकर होंगे) सिद्धपद को प्राप्त होगा।
पढंग-हरी सत्तमए, पंच च्छम्मि पंचमी एक्को ।
एक्को तुरिमे चरिमो, तदिए णिरए तहेव पडिसत्तू ।।1450॥ प्रथम नारायण सातवें नरक में, पाँच नारायण छठे नरक में, एक पांचवें नरक में, एक (लक्ष्मण) चौथे नरक में और अन्तिम नारायण (कृष्ण) तीसरे नरक में गया है। इसी प्रकार प्रति शत्रुओं की भी गति जाननी चाहिये।
___ रुद्रो के नाम एवं उनके तीर्थ निर्देश भीमावलि-जिदसत्तू, रुद्रो वइसाणलो य सुपइट्ठोः । अचलो य पुंडरीओ, अजितंधर-अजियणाभी य ॥1451॥ पीढ़ो सच्चइपुत्रों, अंगधरा तित्थकत्ति-समएसु । रिसहम्मि पढ़म-रुद्दो, जिदसत्तू होदि अजियसामिम्मि ॥14520 सुविहि-पमुहेसु रुद्दा, सत्तसु सत्त-क्कमेण संजादा ।
संति-जिणिदे दसमो, सच्चइपुत्तो य वीर-तिथम्मि ॥1453॥ भीमावलि, जितशत्रु, रुद्र, वैश्वानर (विश्वानल), सुप्रतिष्ठ, अचल, पुण्डरीक, अजितन्धर, अजितनाभि, पीठ और सात्यकिपुत्र ये ग्यारह रुद्र अंगधर होते हुए, तीर्थकर्ताओं के काल में हुए हैं। इनमें से प्रथम रुद्र ऋषभदेव के काल में और जितशत्रु अजितनाथ स्वामी के काल में हुआ है। इसके आगे सात रुद्र क्रमशः सुविधिनाथ को आदि लेकर सात तीर्थकरों के समय में हुए हैं। दसवाँ रुद्र शान्तिनाथ तीर्थकर के समय में और सात्यकि पुत्र वीर जिनेन्द्र के तीर्थ में हुआ है।
__ रुद्रों के नरक जाने का कारण सव्वे वसमे पुग्वे, रुद्दा भट्टा तवाउ विसयत्थं । सम्मत्त-रयण-रहिदा, बुड्ढा घोरेसु णिरएसुं॥1454॥