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[ 85 चित्रश्चित्तहरैदिव्यर्मानुषैश्च समन्ततः ।
नृत्यसङ्गीतवादित्रभूतलेऽपि प्रभूयते ॥20॥ पृथिवी तल पर भी सब ओर मनुष्य चित्त को हरने वाले नाना प्रकार के दिव्य नृत्य, संगीत और वादित्रों से युक्त हो रहे थे।
"विहार के समय देवों की भक्ति" पालयन्ति सदिग्भागैर्लोकपालाः सभूतयः ।
भर्तुसेवा हि भूत्यानां स्वाधिकारेषु सुस्थितिः ॥21॥ विभूतियों से सहित लोकपाल समस्त दिग्भागों के साथ सबकी रक्षा कर रहे थे । सो ठीक ही है क्योंकि अपने-अपने नियोगों पर अच्छी तरह स्थित रहना ही भृत्यों की स्वामी सेवा है।
घावन्ति परितोदेवाकेचिद्भासुरदर्शनाः।
हिंसया ज्यायसा सर्वानृत्सार्योत्सार्य दूरतः ॥22॥ देदीप्यमान दृष्टि के धारक कितने ही देव समस्त हिंसक जीवों को दूर खदेड़ कर चारों ओर दौड़ रहे थे।
उदस्तैरत्नवलयैर्वीचिहस्तैः कृताञ्जलिः ।
भत्र प्रतिस्तदोदन्वान्वेलामूर्ना नमस्यति ॥23॥ उस समय प्रसन्नता से भरा समुद्र, रत्नरूप वलयों से सुशोभित ऊपर हुये तरंगरूपी हाथों से अंजली बाँधकर बेलारूपी मस्तक से मानों भगवान के लिये नमकार ही कर रहा था।
बिलिम्बित सहस्रार्क युगपत्पतनोदयः । नमतान्नन्दितालोक नामोन्नामैः पदे-पदे ॥24॥ सुराणां भूतलस्पशिमकुटर्बहु कोटिभिः ।
भूः पुरः सोपहारेव शोभतेऽबुजकोटिमिः॥25॥ उस समय डग-डग पर भगवान् को नमस्कार करने वाले देवों के करोड़ों देदीप्यमान मुकुटों का बहुत भारी प्रकाश बार-बार नीचे को झुकता और बार-बार ऊपर को उठता था। उससे ऐसा जान पड़ता था मानों हजारों सूर्यो का पतन तथा उदय एक साथ हो रहा हो। उन्हीं देवों के जब करोड़ों मुकुट पृथिवीतल का स्पर्श करते थे तब भगवान् के आगे की भूमि ऐसी सुशोभित होने लगती थी मानों उस पर करोड़ों कमलों की भेंट ही चढ़ाई गयी हो।
लोकान्तिकाः पुरो यान्ति लोकान्तव्यापितेजसः। __लोकेशस्य यथालोकाः पुरोगा मूर्तिसम्भवाः ॥26॥ जिनका तेज लोक के अन्त तक व्याप्त था, ऐसे लौकान्तिक देव भगवान् के आगे-आगे चल रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानों लोक के स्वामी भगवान् जिनेन्द्र का प्रकाश ही मूर्तिधारी हो आगे-आगे गमन कर रहा था।