Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 112
________________ [ 91 ] श्रीनाथैस्ततः सर्वे यते पूर्णमङ्गलैः । मङ्गलस्य हि माङ्गल्या यात्रा मङ्गत्रपूविकाः ॥62॥ तदनन्तर श्रीदेवी से सहित समस्त एवं परिपूर्ण मंगलद्रव्य विद्यमान थे सो ठीक ही है क्योंकि मंगलमय भगवान् की मंगलमय यात्रा मंगल द्रव्यों से युक्त होती ही है । शङ्खपद्म ज्वलन्मौलि सार्थीयौ सत्त्वकामदौ । निधिभूतौ प्रवर्तते हेमरत्न प्रर्षिणौ ॥63॥ उनके आगे, जिन पर देदीप्यमान मुकुट के धारक प्रमुख देव बैठे थे ऐस शंख और पद्य नामक दो निधियां चलती थीं। ये निधियाँ समस्त जीवों को इच्छित वस्तुएँ प्रदान करने वाली थीं तथा सुवर्ण और रत्नों की वर्षा करती जाती थीं ॥ भास्वत्फणामणि ज्योतिर्दोपिका भान्ति पन्नगाः । हतान्धतमस ज्ञान दीप दीप्त्यनुकारिणः ॥164 उनके आगे फणाओं पर चमकते हुये मणियों की किरणरूपदीपकों से युक्त नागकुमार जाति के देव चलते थे और वे अज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाले केवलज्ञानरूपी दीपक की दीप्तिका अनुकरण करते हुए से जान पड़ते थे । विश्वे वैश्वानरा यान्ति धृतधूपघटोद्धताः । यद्गन्धो याति लोकान्तं जिनगन्धस्य सूचका ॥ 65 ॥ उनके आगे धूपघटों को धारण करने वाले समस्त अग्निकुमार देव चल रहे थे । उन धूपघटों की गन्ध लोक के अन्त तक फैल रही थी और वह जिनेन्द्र भगवान् की गन्ध से सूचित कर रही थी । सौम्याग्नेयगुणा देवभक्ताः सोमदिवाकराः । स्वप्रभामण्डलादर्शमङ्गलानि वहन्त्यहो ॥ 66॥ तदन्तर शान्त और तेजरूप गुण को धारण करने वाले, भगवान् के भक्त, चन्द्र और सूर्य जाति के देव अपनी प्रभा के समूह रूप मंगलमय दर्पण को धारण करते हुए चल रहे थे । तपनीयमयैश्छत्रैर्नभस्तपनरोधिभिः । तपनैरेव सर्वत्र संरुद्धमिव दृश्यते ॥ 67 ॥ उस समय सन्ताप को रोकने के लिये सुवर्णमय छत्र लगाये गये थे, उनसे सर्वत्र ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश सूर्यों से ही व्याप्त हो रहा हो । पताकाहस्तविक्षेपैः संत परवादिनः । दयामूर्ता इवेशांसा नृत्यन्ति जयकेतवः ॥ 68 ॥ जगह-जगह विजय स्तम्भ दिखाई दे रहे थे, उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो पताकारूपी हाथों के विक्षेप से परवादियों को परास्त कर दयारूपी मूर्ति को धारण करने वाले भगवान् के मानो कन्धे ही नृत्य कर रहे हों ।

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