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[ 89 ] भगवान् के विहार का वह मार्ग तीन योजन चौड़ा बनाया गया था तथा मार्ग के दोनों ओर की सीमाएँ दो-दो कोस चौड़ी थी।
तोरणः शोभते मार्गः करणेरिव कल्पितः।
दृष्टिगोचरसम्पन्नेः सौवणेरष्टमंगलैः ।।48॥ वह मार्ग जगह-जगह निर्मित तोरणों तथा दृष्टि में आने वाले सुवर्णमय अष्टमङ्गल द्रव्यों से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इन्द्रियों से ही सुशोमित हो रहा था।
कामशाला रविशालाः स्युः कामदास्तव तत्र च ।
भागवत्यो यथा मूर्ताः कामदा दानशक्त्यः ॥49॥ मार्ग में जगह-जगह भोगियों को इच्छानुसार पदार्थ देने वाली बड़ी-बड़ी कामशालाएँ बनी हुई थीं जो ऐसी जान पड़ती थीं मानो इच्छानुसार पदार्थ देने वाली भगवान् की मूर्तिमयी दानशक्तियां ही हों।
तोरणान्तरभूतङ्गसमस्तकदलीध्वजः। ___ संछन्नोऽध्वा घनच्छायो रूणद्धि सवितुश्छविम् ॥50॥ तोरणों की मध्य भूमि में ऊँचे-ऊँचे केले के वृक्ष तथा ध्वजाएं लगी हुई थीं उनसे अच्छादित हुआ मार्ग इतनी सघन छाया से युक्त हो गया था कि वह सूर्य की छवि को भी रोकने लगता था । मंगल विहार का मंडपः
वनवासिसुरैर्वन्य मञ्जरी पुञ्ज पुञ्जरः।
स्वपुण्य प्रचयाकारः कल्प्यते पुष्पमण्डपः ॥51॥ वन के निवासी देवों ने वन की मञ्जरियों के समूह से पीला-पीला दिखाने वाला पुष्पमण्डप तैयार किया था जो उनके अपने पुण्य के समूह के समान जान पड़ता है।
युक्तो रत्नलता चित्रमित्तिमिः सद्वियोजनः। चन्द्रादित्य प्रभारोचिर्भण्डलोपान्तमण्डितः ॥52॥ घण्टिकाकल निहदिर्घण्टानार्दनिनादयन् । दिशो मुक्तागुणामुक्तप्रान्तमध्यान्तरान्तरः ॥53॥ सद्गन्धा कृष्ट संभ्रान्त भूङ्गमालोल सधुतिः । वियतीश यशोमूर्त वितानच्छविरीक्ष्यते ॥540 सोत्तम्भ स्तम्भ संकाशैः स्थूल मुक्तागुणोद्भवः । चतुभिर्दाममिति विनुमान्तान्तरा चितैः॥55॥ तस्यान्तस्थों दयामूतिः प्रयाति दमिताहितः।
हिताय सर्वलोकस्य स्वयमशिः स्वयंप्रमः॥56॥ वह पुष्पमण्डप रत्नमयी लताओं के चित्रों से सुशोभित दीवालों से युक्त था, दो योजन विस्तार वाला था, चन्द्रमा और सूर्य की प्रभा के कान्तिमण्डल से समीप में सुशोभित था, छोटी-छोटी घाटियों की रुनझुन और घण्टाओं के नाद से दिशाओं