Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 117
________________ [ 96 ] उस कान्तिदण्ड का प्रकाश लोक के अन्त तक व्याप्त था, रुकावट से रहित था, गाढ़ अन्धकार को नष्ट करने वाला था, और सूर्य के प्रकाश को अतिक्रान्त करने वाला था। तस्यान्ततेजसो भर्ता तेजोमय इवापरः । रश्मिमालिसहस्रकरुपाकृतिरनाकृतिः ॥99॥ परितो भामिसत्सर्पद्धनो भर्तुमहोदयः। भासिगम्यूतिविस्तारो युक्तोच्छ्रायस्ननूद्भवः ॥100॥ दृश्यते दृष्टिहारीव सुखदृश्यः सुखावहः। पुण्यमूर्तिस्दतन्तस्थः पूज्यते पुरुषाकृतिः ॥ (101) ॥ उस कान्तिदण्ड के बीच में पुरुषाकार एक ऐसा दूसरा कान्तिसमूह दिखायी देता था जो तेज का धारक था, अन्य तेजोयय के समान जान पड़ता था, एक हजार सूर्य के समाकान्ति धारक था, जिससे बढ़कर और दूसरी आकृति नहीं थी, जो चारों ओर फैलने वाली कान्ति से घनरूप था, भगवान् के महान् अभ्युदय के समान था, जिसकी कान्ति का विस्तार एक कोस तक फैल रहा था, जो भगवान् की ऊंचाई के बराबर ऊंचा था, दृष्टि को हरण करने वाला था, सुखपूर्वक देखा जा सकता था, सुख को उत्पन्न करने वाला था, पुण्य की मूर्ति स्वरूप था और सबके द्वारा पूजा जाता था। काधियोऽपुण्यजन्मानः स्वापुण्यजरुषान्विताः। न पश्यन्ते च तद्भासं भानुभासमुलूकवत् ॥102॥ जिस प्रकार उल्लू सूर्य की प्रभा को नहीं देख पाते हैं उसी प्रकार दुर्बुद्धि, पापी एवं अपने पाप से उत्पन्न क्रोध से युक्त पुरुष उस कान्ति समूह को नहीं देख पाते हैं। तिरयन्ती रवेस्तेजः पूरयन्ती दिशोऽखिलाः। तत्प्रभा भानवीयेव पूर्व व्याप्नोति भूतलम् ॥103॥ उस क्रान्ति समूह में से एक विशेष प्रकार की प्रभा निकलती थी जो सूर्य के तेज को आच्छादित कर रही थी, समस्त दिशाओं को पूर्ण कर रही थी और सूर्य की प्रभा के समान पृथिवी तल को पहले से व्याप्त कर रही थी। तस्याच्श्रानुपदं याति लोकेशो लोकशान्तये । लोकानुद्भासयन् सर्वानतिदीधितिमत्प्रभः ॥104॥ उस प्रभा के पीछे, जो समस्त लोकों को प्रकाशित कर रहे थे तथा जिनकी प्रभा अत्यधिक किरणों से युक्त थी ऐसे भगवान् नेमि जिनेन्द्र-लोक शान्ति के लियेसंसार में शान्ति का प्रसार करने के लिये बिहार कर रहे थे। एक वर्ष तक चिन्ह से युक्त मार्ग आसंवत्सरमात्माङ्गः प्रथयन्प्राभवी गतिम् ॥ भासते रत्नवृष्ट्याध्वाभरोत्यरावतो यथा ॥105॥

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