Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 116
________________ [ 95 ] पशु से भी नमस्करणीय चतुरानन दूराच्चाल्पधियः सर्वे नमन्ति किमुतेतरे। चतुरास्यश्चतुर्दिक्षु छायादिरहितो विभुः॥ 90 ॥ उस समय अन्य की तो बात ही क्या थी अल्पबुद्धि के धारक तिर्यञ्च आदि समस्त प्राणी भगवान् को दूर से ही नमस्कार करते थे । भगवान् चतुर्मुख थे इसलिए चारों दिशाओं में दिखाई देते और छाया आदि से रहित थे। शुभं यवो नमन्त्येत्याहंयवोऽपि प्रवादिनः । अवसानादुद्भुतं चैतनिर्द्वन्द्वं प्राभवं हि तत् ॥ 92 ॥ जिनका कल्याण होने वाला था ऐसे प्रवादी लोग, अहंकार से युक्त होने पर भी आ-आकर भगवान् को नमस्कार करते थे सो ठीक ही है क्योंकि उन जैसा प्रभाव अन्त में आश्चर्य करने वाला एवं प्रतिपक्षी से रहित होता ही है। दिक्पाल द्वारा सम्मान यस्यां यस्यां दिशीशः स्यात्रिदशेशपुरस्सरः। तस्यां तस्यां दिशीशाः स्युः प्रत्युद्याताः सपूजनाः ॥ (93)॥ जिनके आगे-आगे इन्द्र चल रहा था ऐसे भगवान् जिस-जिस दिशा में पहुंचते थे उसी-उसी दिशा के दिक्पाल पूजन की सामग्री लेकर भगवान् की अगवानी के लिए आ पहुँचते थे। यतो यतश्र यातीशस्तदीशाच्च समङ्गलाः। अनुयान्त्याच्च सीमानः सार्वभौमो हि तादृशः ॥ (94) ॥ भगवान् जिस-जिस दिशा से वापिस जाते थे उस-उस दिशा के दिक्पाल मङ्गल द्रव्य लिए हुए अपनी-अपनी सीमा तक पहुँचाने आते थे सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् उसी प्रकार के सार्वभौम थे-समस्त पृथिवी के अधिपति थे ॥ . अद्भुत तेजपूर्ण कांतिदण्ड तस्यामेकः समुतुङ्गो भादण्डो दण्डसन्निभः । अधरोपरिलोकान्तः प्राप्तः प्रत्यागतांशुभिः ॥ (96) ॥ उस देवसेना के बीच दण्ड के समान बहुत ऊँचा कान्तिदण्ड विद्यमान था जो नीचे से लेकर ऊपर लोक के अन्त तक फैला था और वापिस आयी हुई किरणों से युक्त था। त्रिगुणीकृततेजस्कः स्थूलदृश्यःस्वतेजसा : भासते भास्करादन्याज्ज्योतिष्टोमतिरस्करः ॥ (97) ॥ अन्य तेजधारियों की अपेक्षा उस कान्तिदण्ड का तेज तिगुना था। अपने तेज के द्वारा वह बड़ा स्थूल दिखाई देता था और सूर्य के सिवाय अन्य ज्योतिषियों के समूह को तिरस्कृत करने वाला था। आलोको यस्य लोकान्तव्यापी नि:प्रतिबन्धनः। ध्वस्तान्धतमसो मास्वत्प्रकाशमतिवर्तते ॥ (98)॥

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