Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

View full book text
Previous | Next

Page 109
________________ [ 88 ] कौंधती हुई बिजली की चमक से समस्त दिशाओं के अग्रभाग को प्रकाशित करने वाले मेघवाहन देव उस मार्ग से सुगन्धित जल सींचते जाते थे। मन्दारकुसमर्मत भ्रमभ्रमरचुम्बितैः। नन्धते सुरसंघातैर्मार्गो मार्गविदुद्यमे ॥41॥ मोक्ष मार्ग के ज्ञाता भगवान् के विहार काल में, देवों के समूह जिन पर मदोन्मत्त भौरें मंडरा रहे थे ऐसे मन्दार, वृक्ष के पुष्पों से मार्ग को सुशोभित कर रहे थे। ज्योतिर्मण्डलसंकाशः सौवर्णरसमण्डलैः । सलग्नः शोभते मार्गो रत्नचूर्णतलाचितैः ॥42॥ वह मार्ग, गले हुये सोने के रस के उन मण्डलों से जिनके कि तलभाग रत्नों के चूर्ण से व्याप्त थे एवं नक्षत्रों के समूह के समान जान पड़ते थे, अतिशय सुशोभित हो रहा था। गुह्यकांश्रित्रपत्राणि चिन्वते कोङ्क मैः रसः । चित्रकर्मज्ञतां चित्रां स्वामाचिस्यासवो यथा ॥43॥ गुह्यक जाति के देव केशर के रस से नाना प्रकार के बेल-बूटे बनाते जाते थे मानो वे अपनी चित्रकर्म की नाना प्रकार की कुशलता को प्रकट करना. चाहते थे। कदलीनालिकेरेक्षुक्रमुकाद्यः क्रमस्थितः। सपत्रर्गिसीमापि रम्यारामायते द्वयी ॥44॥ मार्ग के दोनों ओर की सीमाएं क्रमपूर्वक खड़े किए हुए पत्तों से युक्त केला, नारियल, ईख तथा सुपारी आदि के वृक्षों से सुन्दर बगीचों के समान जान पड़ती थीं। तत्राक्रीड़पदानि स्युः सुन्दराणि निरन्तरम् । यत्र हृष्टाः स्वकान्ताभिराक्रोड्यन्ते नरामराः ॥45॥ मार्ग में निरन्तर सुन्दर क्रीड़ा के स्थान बने हुए थे जिनमें हर्ष से भरे मनुष्य और देव अपनी स्त्रियों के साथ नाना प्रकार की क्रीडा करते थे। भोग्यान्यपि यथाकामं भगोगिनां भोग भूमिवत् । सर्वाण्यन्यूनभूतीनि संभवन्त्यन्तरेऽन्तरे ॥46॥ जिस प्रकार भोग भूमि में भोगी जीवों को इच्छानुसार भोग्य वस्तुएं प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार उस मार्ग में भी, बीच-बीच में भोगी जीवों को उत्कृष्ट विभूति से युक्त सब प्रकार की भोग वस्तुएँ प्राप्त होती रहती थीं। योजनत्रयविस्तारो मार्गों मार्गान्तयोयोः । सीमानो द्वे अपि ज्ञेये गव्यूतिद्वयविस्तृते ॥47॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132