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स देवः सर्वदेवेद्रव्याहतालोकमङ्गलः। तन्मौलिभ्रमरालीढभ्रमत्पादपयोरुहः ॥34॥ तत्पयोरहवासिन्या पद्मयानन्दयज्जगत् ।
व्यहरत् परमोद्भतिर्भूतानामनुकम्पया ॥35॥ तदन्तर समस्त इन्द्र जिनके जय-जयकार और मंगल शब्दों का उच्चारण कर रहे थे, जिनके चलते हुए चरण कमल उन इन्द्रों के मुकुट रूपी भ्रमरों से व्याप्त थे, जो उन कमलों में निवास करने वाली लक्ष्मी से समस्त जगत् को आनन्दित कर रहे थे, और जो अत्यन्त उत्कृष्ट विभूति के धारक थे, ऐसे भगवान नेमि जिनेन्द्र जीवों पर दया कर बिहार करने लगे।
देवमार्गोत्थिते दिव्ये विन्यस्याब्जे पदाम्बुजम् ।
स्वच्छाम्भोवाङ्मुखाम्भोजप्रतिबिम्बधिणि प्रभुः ॥36॥ वे प्रभु, आकाश में, स्वच्छ जल के भीतर पड़ते हुए मुख-कमल के प्रतिबिम्ब की शोभा को धारण करने वाले दिव्य कमल पर अपने चरण कमल रखकर विहार कर रहे थे।
उद्यतस्तस्य लोकार्थ राजराजः पुरस्सरः ।
राजते राजयन्मार्ग पुरोभानोर्यथारूणः ॥37॥ उस समय भगवान के दर्शन करने के लिए उद्यत एवं उनके आगे-आगे चलने वाला कुबेर मार्ग को सुशोभित करता हुआ ऐसा जान पड़ता था जैसे सूर्य के आगे चलता हुआ उसका सारथी अरुण हो ।
मंगलमय का मंगलमय मार्ग पदवी जातरुपाङ्गी स्फुरन्मणिविभूषणा।
श्लाधते सा सती भर्ने स्वभत्रै भामिनी यथा ॥38॥ भगवान के विहार का वह मार्ग सुवर्णमय था एवं देदीप्यमान मणियों के आभूषण से सहित था। इसलिये अपने पति के स्थित, सुवर्णमय शरीर की धारक एवं देदीप्यमान मणियों के आभूषणों से सुशोभित पतिव्रता स्त्री के समान प्रशंसनीय था।
परितः परिमार्जन्ति मरुतो मधुरेरणैः ।
अवदातक्रियायोगैः स्वां वृत्ति साधवो यथा ॥39॥ जिस प्रकार मुनिगण निर्मल क्रियाओं से अपनी वृत्ति को सदा साफ करते रहते हैं-निर्दोष बनाये रखते हैं उसी प्रकार पवनकुमार देव वायु के मन्द-मन्द झोकों से उस मार्ग को साफ बनाये रखते थे।
अभ्युक्षन्ति सुरास्तत्र गन्धाम्भोऽम्बुदवाहनाः । स्फुरत्सौदामिनी दीप्ति भासिताखिलदिङ्मुखाः ॥40॥