Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 98
________________ [ 77 ] शोभायमान हो रही थी। जो गंगा नदी के शीतल जल से भीगी हुई है, जो अनेक भ्रमरों से व्याप्त है और जिसकी सुगन्धि चारों ओर फैली हुई है ऐसी वह पुष्पों की वर्षा भगवान् के आगे पड़ रही थी॥32 to 35॥ (3) अशोक वृक्ष जेसि तरुण मूले उप्पण्णं जाण केवलं जाणं । उसहप्पहुदिजिणाणं ते चिय असोयरूकख ति ॥924॥ ऋषभादि तीर्थंकरों को जिन वृक्षों के नीचे केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है वे ही अशोक वृक्ष हैं । न्यग्रोध, सप्तवर्ण, शाल, सरल, प्रियंगु, फिर वही (प्रियंगु), शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेड़ा), धूली (मालिवृक्ष), पलाश, तेंदु, पाटल, पीपल, दधिपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, कंकेली (अशोक), चम्पक, बकुल, मेषशृङ्ग, धव और शाल, ये अशोक वृक्ष लटकती हुई मालाओं से युक्त और घन्टासमूहादिक से रमणीय होते हुये पल्लव एवं पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं से शोभायमान होते हैं ।।924 to927॥ तिलोयपणत्ती अध्याय-4 मरकतहरितः पत्रैर्मणिमयकुसुमैश्चित्रः । मरुदुपविधुताःशाखाश्चिरमधृत महाशोकः ॥36॥ आ० पृ०-अ० 13-पृ०-543 भगवान के समीप ही एक अशोक वृक्ष था जो कि मरकतमणि के बने हुए हरे-हरे पत्ते और रत्नमय चित्र-विचित्र फूलों से सहित था तथा मन्द-मन्द वायु से हिलती हुई शाखाओं को धारण कर रहा था। वह अशोक वृक्ष मद से मधुर शब्द करते हुये भ्रमरों और कोयलों से समस्त दिशाओं को शब्दायमान कर रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् की स्तुति कर रहा हो। वह अशोक वृक्ष अपनी लम्बी-लम्बी शाखारूपी भुजाओं के चलाने से ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के आगे नृत्य ही कर रहा हो और पुष्षों के समूहों से ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के आगे देदीप्यमान पुष्पांजलि ही प्रकट कर रहा हो ॥36 to 38॥ रेजेऽशोकतरूरसौ रून्धन्मार्ग व्योमचर महेशानाम् ।। तन्वन्योजनविस्तृताः शाखा धुन्वन् शोकमयमदो ध्वान्तम् ॥39॥ आकाश में चलने वाले देव और विद्याधरों के स्वामियों का मार्ग रोकता हुआ अपनी एक योजन विस्तार वाली शाखाओं को फैलाता हुआ शोकरूपी अन्धकार को नष्ट करता हुआ वह अशोक वृक्ष बहुत ही अधिक शोभायमान हो रहा था। फूले हुये पुष्पों के समूह से भगवान के लिये पुष्पों का उपहार समर्पण करता हुआ वह वृक्ष अपनी फैली हुई शाखाओं से समस्त दिशाओं को व्याप्त कर रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो उन फैली हुई शाखाओं से दिशाओं को साफ करने के लिये ही तैयार हुआ हो। जिसकी जड़ वज्र की बनी हुई थी, जिसका मूल भाग रत्नों से देदीप्यमान था, जिसके अनेक प्रकार के पुष्प जयापुष्प की बनी कान्ति के समान पद्मरागमणियों के बने हुये थे और जो मदोन्मत्त कोयल तथा भ्रमरों से सेवित था। ऐसे उस वृक्ष को इन्द्र ने सब वृक्षों में मुख्य बनाया था ॥39 to 41।।

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