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[ 68 ] (16) निद्रा
निद्रा नोकषाय कर्म के उदय से तथा आलस्य और क्लान्ति (थकावट) को दूर करने के लिए संसारी जीव निद्रा की शरण लेते हैं परन्तु तीर्थंकर भगवान निद्रा नोकषाय का समूल विनाश करने से तथा अनन्त शक्ति सम्पन्न होने से निद्रा नहीं लेते हैं। (17) चिन्ता
संसारी जीव को पाप कर्म के उदय से इष्ट, वियोग, अनिष्ट, संयोग, शारीरिक रोग आदि के कारण चिन्ता होती है । परन्तु तीर्थंकर (अरहत) अवस्था में सातिशय अमृत स्थानीय पुण्य कर्म के उदय से तथा मोह-माया-ममत्व आदि के अभाव से चिंता नहीं होती है। (18) स्वेद
स्वेद, शारीरिक मल है। तीर्थंकर भगवान का शरीर परम औदारिक रूप परिणमन करता है जो कि शुद्ध स्फटिक के समान होता है। परिश्रम से भी तथा थकावट से भी स्वेद (पसीना) निकलता है। तीर्थंकर भगवान के गमनागमन सहन होने से तथा अनन्त शक्ति सम्पन्न होने से स्वेद (पसीना) नहीं आता है।
विश्व धर्म-सभा की रचना (समवसरण) कठोर आध्यात्मिक साधन के फलस्वरूप तीर्थंकर को विश्व-प्रकाशक, आध्यात्मिक ज्योति, पूर्ण अतीन्द्रिय केवल ज्ञान प्राप्त हुआ।
जादे केवलणाणे परमोरालं जिणाण सव्वाणं । गच्छवि उरि चावा पंचसहस्साणि वसुहादो ॥713॥
ति० प० भाग-2 अ० 4 पृ० 201 केवल ज्ञान के उत्पन्न होने पर समस्त तीर्थंकरों का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पांच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है।
भुवणत्तयस्स ताहे अइसयकोडीअ होदि पक्खोहो।
सोहम्मपहुदिइंदाणं आसणाई पि कंपति ॥714॥ उस समय तीनों लोकों में अतिशय क्षोभ उत्पन्न होता है और सौधर्मादिक इन्द्रों के आसन कंपायमान होते हैं।
तक्कंपेणं इंदा संखुग्धोसेण भवणवासिसुरा। पडहरवेहिं वेतर सहिणिणादेण जोइसिया 1715॥ घंटाए कप्पवासी गाणुप्पति जिणाण णादूणं ।
पणमंति भत्तिजुत्ता गंतूणं सत्त वि कमाओ 1716॥ आसन के कंपित होने से इन्द्र, शंख के उद्घोष से भवनवासी देव, पटह के शब्दों से व्यन्तर देव, सिंहनाद से ज्योतिषी देव और घंटा के शब्द से कल्पवासी देवों तीर्थंकरों के केवल ज्ञान की उत्पति को जानकर भक्तियुक्त होते हुए उसी दिशा में सात पर जाकर प्रणाम करते हैं।