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रचित अत्यन्त वैभवपूर्ण विश्व के अद्वितीय, अनुपम कला-कौशल, विभिन्न बहुमूल्य रत्नों से निर्मित, समवसरण को स्पर्श तक नहीं करते हैं। इतना ही नहीं, गंधकुटी में स्थित सिंहासन को भी स्पर्श करके विराजमान नहीं होते हैं। वे उस सिंहासन से चार अंगुल अन्तराल से आकाश में बिना आधार स्थिर रहते हैं।
तीर्थंकर भगवान् विश्व धर्म सभा समवसरण में विराजमान होकर विश्व-प्रेम, मैत्री, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अनेकांत, स्याद्वाद, विश्व का सत्यस्वरूप, धर्म का रहस्य, रत्नत्रय, धर्म, षट-द्रव्य, सप्त-तत्त्व, नव-पदार्थ, संसार तथा मोक्ष-कारण, गृहस्थ धर्म, मुनि-धर्म, सच्चे नागरिकों के कर्तव्य (अविरत, चतुर्थ गुण स्थानवी जीवों के कर्तव्य) आदि का सूक्ष्म तथा पूर्ण वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण उपदेश करते हैं। तीर्थंकर भगवान् सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के लिए उपदेश करते हैं। उनका उपदेश संकीर्ण मनोभाव से प्रेरित होकर क्षुद्र सांप्रदायिक नहीं होता है । उनका उपदेश कुछ सीमित वर्गों के लिए नहीं होता है। उनके उपदेश अहिंसा, विश्व मैत्री, प्रेम, सौहार्द्र, सुख-शान्ति के लिए होता है। वे स्वयं अहिंसा, सत्य, प्रेम, करूणा की जीवन्त मूर्ति होते हैं । अंतरंग, बहिरंग और उपदेश अहिंसामय, समतामय, सत्यमय होने के कारण सत्य दृष्टिकोण रखने वाले भव्य जीव, उनके उपदेश सुनने के लिए बहुत दूर दूरान्तर से आकर्षित होकर आते हैं । उनकी धर्म सभा में राजामहाराजा, सम्राट के साथ-साथ दीन-हीन गरीब भी एक आसन में किसी प्रकार के भेद-भाव से रहित होकर प्रेम से बैठकर धर्मोमृत पान करते हैं। उस विश्व धर्म सभा में राजरानी, साम्राज्ञी, पट्टमहिषी, दीन, दुःखिनी, ग्रामीण, स्त्री भी समासन में भेदभाव भूलकर बैठते हैं । इतना ही नहीं, उस धर्मामृत पान करने के लिए अबोध पशुपक्षी भी आकर्षित होकर ग्राम, नगर, जंगल से आकर धर्मसभा में स्वभोग्य स्थान में बैठकर धर्मामृत पान करते हैं। जन्म-जात परस्पर वैरत्त्व रखने वाले पशु-पक्षी भी उस अहिंसामय परिसर में निवैरत्व होकर, निर्भय होकर, प्रेम प्रीति से एक साथ बैठते हैं । आचार्य जिनसेन स्वामी ने हरिवंश पुराण में समवसरण का वर्णन करते हुए हिंसक पशु-पक्षियों के बारे में निम्न प्रकार वर्णन किये हैं
ततोऽहिन कुलेभेन्द्रहर्यश्वमहिषादयः । जिनानुभाव सम्भूतविश्वासाः शमिनो बभुः ॥87॥
हरि० पु० अ०2 पृ० 19 और उनके बाद द्वादश कोष में जिनेन्द्र भगवान के प्रभाव से जिन्हें विश्वास उत्पन्न हुआ था तथा जो अत्यन्त शांतचित के धारक थे, ऐसे सर्प, नेवला, गजेन्द्र, सिंह, घोड़ा और भैंस आदि नाना प्रकार के तिर्यञ्च बैठे थे॥87॥
विश्व में विभिन्न काल में, विभिन्न देश में, विभिन्न सम्प्रदाय में बड़े-बड़े धर्म प्रचारक, धर्मात्मा, देवदूत, पैगम्बर हो गये हैं। वे लोग युगपुरूष, धर्म, क्रान्तिकारी, धर्मोपदेशक, प्रचारक एवं प्रसारक हुए हैं। वे तत्कालिक जीव जगत् को परिस्थिति उद्बोधन, पूत-पवित्र किये थे। उससे पतित से पतित मानव भी पावन हो गये हैं और कुछ पशु-पक्षी भी प्रभावित हुए हैं। परन्तु अभी तक हिन्दू, बौद्ध', क्रिस्ट,