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अहमिदा जे देवा, आसणकंपेण तं वि जादूणं । गंतूण तेत्तियं चिय तत्थ ठिया ते णमंति जिणे ॥ 717 ॥
जो अहमिन्द्र देव हैं, वे भी आसनों के कंपित होने से केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर और उतने ही (सात पैर) आगे जाकर वहाँ स्थित होते हुए जिन भगवान को नमस्कार करते हैं ।
ताहे सक्काणाए जिणाण सयलाण समवसरणाणि । forefrore धणदो विरएदि विचित्तरूवहिं ॥ 718॥
उस समय सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर, विक्रिया के द्वारा सम्पूर्ण तीर्थंकरों के समवसरणों को विचित्र रूप से रचता है |
गंधकुटी
तीसरी पीठिकाओं के ऊपर एक-एक गंधकुटी होती हैं । यह गंधकुटी चमर, fifaणी, वंदनमाला और हीरादिक से रमणीय, गोशीर, मलयचंदन और कालागरु इत्यादिक धूपों के गंध से व्याप्त, प्रचलित रत्नों के दीपकों से सहित तथा नाचती हुई विचित्र ध्वजाओं की पंक्तियों से संयुक्त होती हैं । उस गंधकुटी की चौड़ाई और लम्बाई भगवान वृषभनाथ के समवशरण में 600 धनुष प्रभाव थी । तत्पश्चात् श्री नेमिनाथ पर्यन्य क्रम से उत्तरोत्तर पांच का वर्ग अर्थात् पच्चीसपच्चीस धनुष कम होती गयी हैं । भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में गंधकुटी का विस्तार दो से विभक्त एक सौ पच्चीस धनुष और वर्धमान के दुगुणित पच्चीस अर्थात् पचास धनुष प्रमाण था । ऋषभ जिनेन्द्र के समवसरण में गंधकुटी की ऊंचाई नौ
धनुष प्रमाण थी । फिर इसके आगे क्रम से नेमिनाथ तीर्थंकर पर्यंत विभक्त मुख प्रमाण ( 900 : 24 = 25 ) से हीन होती गयी है । पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के समवसरण गंधकुटी की ऊँचाई चार से विभक्त तीन सौ पचहत्तर धनुष और वीरनाथ जिनेन्द्र के पच्चीस कम सौ धनुष प्रमाण थी ।
सिंहासन -
गंधकुटियों के मध्य में पादपीठ सहित उत्तम स्फटिक मणियों से निर्मित और घंटाओं के समूहादिक से रमणीय सिंहासन होते हैं। गंध रत्नों से खचित उन सिंहासनों की ऊँचाई तीर्थंकरों की ऊँचाई के ही योग्य हुआ करती है । अरहन्तों की स्थिति सिंहासन से ऊपर
चउरंगुलंतराले उर्वार सिंहासणाणि अरहंता ।
चेट्ठति गयण-मग्गे लोयालोयप्पयास-मत्तंडा ॥ 904 ॥ पृ० 278 लोक - अलोक को प्रकाशित करने के लिए सूर्य सदृश भगवान अरहन्त देव उन सिंहासनों के ऊपर आकाश मार्ग में चार अंगुल के अंतराल से स्थित रहते हैं । 1190411
तीर्थंकर भगवान् पूर्णरूप से संसार शरीर भोग-उपभोग, सांसारिक, भौतिक वस्तु, धन-संपत्ति वैभव से विरक्त निर्मम, उदासीन, उपेक्षा होने के कारण वे देवों द्वारा