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(2) प्यास
__असाता वेदनीय (पाप) कर्म के उदय से प्यास लगती है। परन्तु तीर्थकर भगवान के समस्त पाप कर्म क्षीण, शक्तिहीन होने के कारण दीर्घ तीर्थंकर अवस्था में भी, तीर्थंकर भगवान को प्यास नहीं लगती है।
भूख तथा प्यास की बाधा से जीव को कष्ट होता है । नीतिकारों ने बताया है कि क्षुधा के समान रोग तथा वेदना दूसरी नहीं है । क्षुधा से दुःख के साथ-साथ शक्ति भी क्षीण हो जाती है । यदि भगवान भी भोजन करते हैं और पानी पीते हैं तब इससे सिद्ध हुआ कि भगवान क्षुधा प्यास के कारण दुःखी हैं और जो दुःखी होता है वह भगवान नहीं हो सकता। भोजन के लिए परावलम्बी भी होना पड़ता है और जो परावलम्बी होता है वह भगवान नहीं हो सकता । भगवान् अक्षय, अनन्त, सुख-शक्ति ज्ञान, आत्मवैभव के धनी होते हैं वे पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं। . (3) बुढ़ापा
वृद्धत्त्व सांसारी जीव का एक स्वाभाविक प्राकृतिक रोग है। वृद्धत्त्व के कारण शारीरिक, मानसिक शक्ति क्षीण हो जाती है। परन्तु तीर्थंकर के परम औदारिक शरीर में वृद्धत्त्व अवस्था नहीं आती है । लक्ष करोड़ अवधि वर्ष तक वे किशोर अवस्था के समान रहते हैं।
(4) रोग
रोग असाता वेदनीय कर्म के उदय से होता है। परन्तु तीर्थकर भगवान (अरिहंत) साक्षात् सातिशय पुण्य के जीवन्त मूर्ति स्वरूप होने के कारण असाता वेदनीयजनित रोग नहीं होता है ।
(5) जन्म
सञ्चित कर्म का उपभोग करने के लिए एक नवीन अवस्था को धारण करना पड़ता है उस नवीन अवस्था का धारण करना ही जन्म है। अरिहंत भगवान् आध्यात्मिक पुरुषार्थ के माध्यम से सञ्चित कर्म को निःशेष कर लेते हैं जिससे उनको पुनजन्म धारण नहीं करना पड़ता है।
(6) मरण
प्रत्येक जीव मरण से अत्यन्त भयभीत होते हैं इसलिए मरण एक भयंकर दुःखदायी रोग है । संसारी जीव के आयु कर्म समाप्त होना ही मरण है। मरण के पश्चात् पुनर्जन्म संसारी जीव, अवशेष कर्म संस्कार से प्राप्त करते हैं। पुनर्जन्म सहित मरण ही यथार्थ रूप से मरण है पुनर्जन्म रहित मरण को मरण नहीं है किन्तु निर्वाण (मोक्ष) है । अरहंत का निर्वाण होता है किन्तु मरण नहीं होता है।
(7) भय
भय कर्म के उदय से संसारी जीव को भय उत्पन्न होता है । तीर्थंकर भगवान् आध्यात्मिक वीर्य से भय उत्पादक भय कर्म को समूल नाश करने के कारण उनको किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता है। शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक