________________
[ 38 ]
मोहारिविजयोरोग समयोऽयं जगद् गुरोः ।
इत्युच्चै?षयामासुस्तदा शक्काज्ञयाऽमराः ॥103॥ उस समय इन्द्र की आज्ञा पाकर समस्त देव जोर-जोर से घोषणा कर रहे थे कि जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव का मोह रूपी शत्रु को जीतने के उद्योग करने का यही समय है।
दीक्षा विधि देवादि अत्यन्त उत्साहित होकर पालकी को लेकर दीक्षा स्थान में पहुंचते हैं। वहाँ जाकर भगवान् पालकी से उतरकर स्वच्छ स्थान में पूर्व या उत्तर दिक् की ओर मुख करके पर्याङ्कासन में विराजमान होते हैं ।
दीक्षापूर्व उपदेश तत्र क्षणमि वासीनो यथास्वमनु शासनः । विभुः समाजयामास सभां सनृसुरासुराम् ॥192॥
आदि पुराण सप्तदश पर्व तदनन्तर भगवान ने क्षण भर उस शिला पर आसीन होकर मनुष्य, देव तथा धरणेन्द्रों से भरी हुई उस सभा को यथायोग्य उपदेशों के द्वारा सम्मानित किया। भगवान का छद्यस्थ अवस्था में अन्तिम सम्भाषण इस समय में ही होता है। इसके पश्चात् जब तक केवल ज्ञान रूपी अन्तरंग लक्ष्मी को प्राप्त नहीं करते हैं तब तक अखण्ड मौन साधना में तत्पर रहते हैं । उपदेश के उपरान्त बन्धु वर्गों से दीक्षा देने की आज्ञा माँगते हैं
दीक्षा के लिये बन्धु वर्ग से अनुमति भूयोऽपि भगवानुच्चेगिरा मन्द्रगभीरया ।
आपप्रच्छे जगबन्धुर्बन्धून्निः स्नेहबन्धनः ॥193॥ वे भगवान जगत् के बन्धु थे और स्नेहरूपी बन्धन से रहित थे । यद्यपि वे दीक्षा धारण करने के लिए अपने बन्धु वर्गों से एक बार पूछ चुके थे तथापि उस समय उन्होंने फिर भी ऊंची और गम्भीर वाणी द्वारा उनसे पूछा-दीक्षा लेने की आज्ञा प्राप्त की।
तीर्थकर एक आदर्श महान् पुरुष होने के कारण पिता-माता बन्धु वर्गों के प्रति आदर सम्मान प्रदर्शन करने के लिये एवं विश्व को नम्रता का पाठ पढ़ाने के लिए पहले आज्ञा प्राप्त करने पर भी पुनः दीक्षा के अवसर पर आज्ञा प्राप्त करते हैं।
अन्तरंग-बहिरंग निर्ग्रन्थ दीक्षाः मध्येयवनिक स्थित्वा सुरेन्द्र परिचारिणि । सर्वत्र समतां सम्यग्भावयन् शुभभावनः ॥195॥