Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 67
________________ [ 46 ] (8) अच्छायत्व - ( शरीर की छाया नहीं पड़ना ) जिस प्रकार पत्थर, बालू आदि से उसकी प्रतिबिम्ब छाया रूप पड़ती है । किन्तु पत्थर, बालू का रिफाइड किया जाता है अर्थात् काँच रूप या स्फटिक रूप होने के पश्चात् उसमें प्रतिबिम्ब रूप छाया नहीं पड़ती। उसी प्रकार औदारिक शरीर सहित जीव कल मस (पाप) से सहित होने पर औदारिक शरीर की प्रतिबिम्ब रूप छाया पड़ती है किन्तु भगवान कर्म से रहित होने अर्थात् कलमस से रहित हो जाने से जिस प्रकार काँच का प्रतिबिम्ब रूप छाया नहीं पड़ती है उसी प्रकार परमोदारिक शरीर से भी प्रतिबिम्ब रूप छाया नहीं पड़ती है । श्रेष्ठ तपश्चर्या रूप अग्नि में भगवान का शरीर तप्त हो चुका है । केवली बनने पर उनका शरीर निगोदियाँ जीवों से रहित हो गया है । वह स्फटिक सदृश बन गया है, मानो शरीर भी आत्मा की निर्मलता का अनुकरण कर रहा है । इससे भगवान के शरीर की छाया नहीं पड़ती है । राजवत्तिका में प्रकाश को आवरण करने वाली छाया है 'छाया प्रकाशावरणनिमित्ता' ( पृ० 194 ) यह लिखा है | भगवान का शरीर प्रकाश का आवरण न कर स्वयं प्रकाश प्रदान करता है । सामान्य मानव का शरीर नहीं है । जिस शरीर के भीतर सर्वत्र सूर्य विद्यमान है वह शरीर तो प्राची ( पूर्व ) दिशा के समान प्रभात में स्वयं प्रकाश परिपूर्ण दिखेगा । इस कारण भगवान के उनके कर्मों की छाया से विमुक्त निर्मल आत्मा के होता है । शरीर की छाया न पड़ना, पूर्णतया अनुकूल प्रतीत (9) अपक्ष्मस्पन्दत्व( अपलक नयन) शरीर में शक्ति हीनता के कारण नेत्र विश्रामार्थ पलक बन्द कर लिया करते हैं । अब जाने से ये जिनेन्द्र अनन्तवीर्य के स्वामी बन गये पदार्थों को देखते हुए क्षण भर वीर्यान्तराय कर्म का पूर्ण क्षय हो हैं, इस कारण इनके पलकों में लता के कारण होने वाला बन्द होना, खोलना रूप कार्य नहीं पाया जाता है । दर्शनावरण कर्म का क्षय हो जाने से निद्रादि विकारों का अभाव हो गया है । अतः सरागी सम्प्रदाय के आराध्य देवों के समान इन जिनदेव को निद्रा लेने के लिए भी नेत्रों के पलकों को बन्द करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । स्वामी समन्तभद्र ने कहा है कि 'जगत के जीव अपनी जीविका काम, सुख तथा तृष्णा के वशीभूत हो दिन भर परिश्रम से थककर रात्रि को नींद लेते हैं, किन्तु जिनेन्द्र भगवान सदा प्रमाद रहित होकर विशुद्ध आत्मा के क्षेत्र में जागृत रहते हैं । इस कथन के प्रकाश में भगवान के नेत्रों के पलकों का न लगना उनकी श्रेष्ठ स्थिति के प्रतिकूल नहीं है । ( 10 ) सम प्रमाण नख केशत्व (नख और केशों का नहीं बढ़ना) भगवान के नख और केश वृद्धि तथा ह्रास शून्य होकर समान रूप में ही

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