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रहते हैं। प्रभाचन्द्राचार्य ने टीका में लिखा है समत्वेन वृद्धि ह्रासतीनतया प्रसिद्धा नखाश्च केशाश्च यस्य देहस्य तस्य भावस्तत्वं (पृ० 257) भगवान का शरीर जन्म से ही असाधारणता का पुंज रहा है । आहार करते हुए भी उनके निहार का अभाव था। केवली होने पर कवलाहार रूप स्थूल भोजन ग्रहण करना बन्द हो गया । अब उनके परम पुण्यमय देह में ऐसे परमाणु नहीं पाए जाते हैं जो नख और केशरूप अवस्था को प्राप्त करें। शरीर में मलरूपता धारण करने वाले परमाणुओं का अब आगमन ही नहीं होता है । इस कारण नख और केश न बढ़ते हैं और न घटते ही हैं।
(11) दिव्य ध्वनि
पूर्व भव में पवित्र विश्वमैत्री, विश्व प्रेम, विश्व उद्धारक, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय भावनाओं से प्रेरित होकर 16 भावनाओं को भाते हुए केवली श्रुत केवली के पवित्र पदमूल में विश्व को क्षुभित करने वाला तीर्थङ्कर पुण्य प्रकृति को जो बीजरूप से संचय किये थे वही पुण्य कर्मरूपी बीज शनैः शनैः उत्कृष्ट योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूपी परिसर को प्राप्त करके 13वें गुणस्थान में 'पूर्ण' रूप से पुष्ट वृक्ष रूप में परिणमन करके अमित फल देने के लिये समर्थ हो जाता है । दिव्य ध्वनि उन फलों में से सर्वोत्कृष्ट फल है। इस दिव्य ध्वनि की महिमा अचिंत्य, अनुपम, अलौकिक, स्वर्ग-मोक्ष को देने वाली है। दिव्य ध्वनि का सूक्ष्म वैज्ञानिक, भाषात्मक, शब्दात्मक, उच्चारणात्मक, ध्वन्यात्मक विश्लेषण जैन आगम में पाया जाता है। दिव्य ध्वनि के अध्ययन से शब्द विज्ञान, भाषा विज्ञान, ध्वनि आदि का सूक्ष्म सर्वांगीण अध्ययन हो जाता है। दिव्य ध्वनि को 'ऊँ कार' ध्वनि भी कहते हैं। दिव्य ध्वनि को विद्या अधिष्ठात्री देवी सरस्वती भी कहते हैं दिव्य ध्वनि को चतुर्वेद, द्वादशांग, श्रुत, आगम आदि नाम से अविधेय करते हैं। । जैनागम में जिस प्रकार दिव्य ध्वनि का वर्णन है उस प्रकार वर्णन अभी तक देश-विदेश के अन्यान्य दर्शन धर्म, सम्प्रदाय, भाषा विज्ञान, शब्द विज्ञान, व्याकरण, मनोविज्ञान, आधुनिक सम्पूर्ण विज्ञान विभाग में मेरे को देखने में नहीं आया है । दिव्य ध्वनि का कुछ सविस्तार वर्णन प्राचीन आचार्यों के अनुसार निम्नलिखित उद्धृत कर रहे हैं ।
जोयण पमाण संठिद तिरियामरमणुव णियह पडिबोहो। मिदु महुर गभीर तरा यिसद यिसय सयल भासाहि ॥60॥ अट्ठरस महाभासा खुल्लय भासा यि सत्तसय संखा। अक्खर अणक्खरप्पय सण्णीजीवाण सयल भासाओ ॥6॥ एदासि भासाणं तालुववंतोट्ठ कंठ वावारं । परिहरिय एक्क कालं भव्वजणाणंदकर भासो ॥620
(तिलोयपण्णति । पठम अधिकार) पृ० 14 दिव्य ध्वनि मृदु, मधुर, अति गम्भीर और विषय को विशद करने वाली भाषाओं से एक योजन प्रमाण समवसरण सभा में स्थित तिर्यञ्च, देव और मनुष्यों के समूह को प्रतिबोधित करने वाले हैं, संज्ञी जीवों की अक्षर और अनक्षर रूप 18 महाभाषा तथा 700 छोटी (लघु) भाषाओं में परिणत हुई और तालु, दन्त, ओष्ठ