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[ 53 1 उसी प्रकार जब दिव्य-ध्वनि फिरती है तब दिव्य-ध्वनि अनक्षरात्मक रहती है। श्रोता के कर्ण में पहुँचने के बाद वह ध्वनि श्रोता के योग्य भाषा में परिवर्तित हो जाती है। इसलिए दिव्य ध्वनि निश्रुत होने के बाद जब तक श्रोता तक नहीं पहुँचती है तब तक वह दिव्य ध्वनि अनक्षरात्मक, अभाषात्मक (अनेकभाषात्मक, सर्वभाषात्मक), रहती है एवं जब श्रोता के कर्ण में प्रवेश करती है तब वह दिव्यध्वनि अक्षरात्मक, भाषात्मक, परिवर्तित हो जाती है ।
दिव्य-ध्वनि देवकृत नहीं
देवकृतो ध्वनिरि त्यसदेतद् देवगुणस्य तथा विहतीः स्यात् । साक्षर एव च वर्ण समूहान्नैव विनार्थगतिर्जगति स्यात् ॥ 73॥
आदि पुराण सर्ग 23 कोई-कोई लोग ऐसा कहते हैं कि वह दिव्य-ध्वनि देवों के द्वारा की जाती है, परन्तु उनका वह कहना मिथ्या है क्योंकि वैसा मानने पर भगवान के गुण का घात हो जाएगा अर्थात् वह भगवान का गुण नहीं कहलाएगा । देवकृत होने से देवों का कहलाएगा । इसके सिवाय वह दिव्य-ध्वनि अक्षर रूप ही है क्योंकि अक्षरों के समूह के बिना लोक में अर्थ का परिज्ञान नहीं होता। दिव्य-ध्वनि देवकृत-.
कथमेवं देवोपनीतत्वमिति वेत् ? मागहादेवं संनिधाने तथा परिणामतया भाषया संस्कृत भाषया प्रवर्तते ।
दर्शनपाहुऽटीका 35/28/13 प्रश्न-यह देवोपनीत कैसे है ?
उत्तर-यह देवोपनीत इसलिये है कि मगध देवों के निमित से संस्कृत रूप परिणत हो जाती है। क्रिया कलाप टीका 3-16/248/3
दिव्य-ध्वनि को अर्धमागधी, देवकृत अतिशय तथा केवल ज्ञान के अतिशय भी कहते हैं । हरिवंश पुराण में जिनसेन स्वामी दिव्य-ध्वनि को सर्वार्ध मागधी भाषा बताते हुए कहते हैं
अमृतस्टोव धारां तां भाषां सर्वार्धमागधीं।
पिषन् कर्णपुटैजेंनी ततर्प त्रिजगज्जनः॥16॥ तृतीय सर्ग सर्वभाषारूप परिणमन करने वाली अमृत की धारा के समान भगवान की अर्धमागधी भाषा का कर्णपुटों से पान करते हुए तीन लोक के जीव संतुष्ट हो गये।
इसी शास्त्र में इसी तृतीय अध्याय में पूर्व उक्त जिनसेन स्वामी ही दिव्यध्वनि को भगवान द्वारा प्रतिपादित वचन है सिद्ध करते हुए बताते हैं कि
धर्मोक्तो योजनव्यापी चेतः कर्णरसायनम् ।
दिव्यध्वनि जिनेन्द्रस्य पुनाति स्म जगत्त्रयम् ॥38॥ __ जो धर्म का उपदेश देने के लिए एक योजन तक फैल रही थी तथा जो चित्त और कानों के लिए रसायन के समान थी ऐसी भगवान की दिव्यध्वनि तीनों जगत् को पवित्र कर रही थी।