Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 72
________________ [ 51 ] केवल की दिव्य ध्वनि श्रोताओं के कर्णप्रदेश को जब तक प्राप्त नहीं होता है तब तक अनक्षर स्वरूप ही है। जब श्रोता के कर्ण प्रदेश में प्राप्त हो जाती है तब अक्षरात्मक रूप परिणमन हो जाती है । यथार्थ वचन का अभिप्राय श्रोताओं के संशय आदि को दूर करना है। वयणेण विणा अत्थपदुप्पायणं ण संभवइ, सुहुमअव्याण सण्णाए परुवणाणुववत्तीदो ण चाणक्खराए झुणीए अत्थपदुप्पायणं जुज्जदे, अणक्खरभासतिरिक्खे मोत्तूणण्णेसि तत्तो अत्थावगमाभावदो । ण च दिव्यज्यूणी अणक्खरपिप्या चेव, अट्ठारससत्तसयभास........"कुभासाप्पियत्तादो।"........"तेसिमणेयाणं बीजपदणिलीणत्थपरुवायाणं दुवाल संगाणं कारओ गणहर भडारओ गंथकत्तारओ त्तिअण्भुवगमादो। प्रश्न-वचन के बिना अर्थ का व्याख्यान सम्भव नहीं क्योंकि सूक्ष्म पदार्थों की संज्ञा अर्थात् संकेत द्वारा प्ररूपणा नहीं बन सकती। यदि कहा जाए कि अनाक्षरात्मक ध्वनि द्वारा अर्थ की प्ररूपणा हो सकती है, सो भी योग्य नहीं है, क्योंकि अनक्षर भाषायुक्त तिर्यञ्चों को छोड़कर अन्य जीवों को उससे अर्थ ज्ञान नहीं हो सकता है। और दिव्य-ध्वनि अनक्षरात्मक ही हो सो भी बात नहीं है। क्योंकि वह अठारह भाषा व सात सौ कु० (लघु भाषा) भाषा स्वरूप है। उत्तर--अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीज पदों का प्ररूपक अर्थकर्ता तथा बीज पदों में लीन, अर्थ के प्ररूपक बारह अंगों के कर्ता "गणधर भट्टारक" ग्रन्थकर्ता हैं ऐसा स्वीकार किया गया है। अभिप्राय यह है कि बीज पदों का जो व्याख्याता है वह ग्रन्थकर्ता कहलाता ___ धवलपु० 1/1, 1, 50/284/3 दिव्य ध्वनि की अक्षरात्मकतातीर्थकर वचनमनक्षरत्वाद् ध्वनिरूपं तत एव तदेकम् । एकत्वान्न तस्य द्वैविध्यं घटत इति चेन्न, तत्र स्यादित्यादि असत्यमोषवचनसत्वतस्तस्य ध्वनेरक्षरत्वसिद्धेः । प्रश्न-तीर्थकर के वचन अनक्षर रूप होने के कारण ध्वनिरूप हैं, और इसलिए वे एकरूप हैं, और एकरूप होने के कारण वे सत्य और अनुभय इस प्रकार दो प्रकार के नहीं हो सकते ? उत्तर-नहीं, क्योंकि केवली के वचन में 'स्यात्' इत्यादि रूप से अनुभय रूप. वचन का सद्भाव पाया जाता है। इसलिये केवल ध्वनि अनक्षरात्मक है यह बात असिद्ध है। साक्षर एव च वर्णसमुहान्नव विनार्थगतिर्ज गतिस्यात् । दिव्य ध्वनि अक्षररूप ही है, क्योंकि अक्षरों के समूह के बिना लोक में अर्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता ॥ 93 ॥

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