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(11) सम्पूर्ण जीव रोगबाधाओं से रहित हो जाते हैं।
(12) यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों की भाँति उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मचक्रों को देखकर मनुष्यों को आश्चर्य होता है । तथा--
(13) तीर्थंकरों की चारों दिशाओं (विदिशाओं) में छप्पन स्वर्ण-कमल, एक पादपीठ और विविध दिव्य पूजन द्रव्य होते हैं। 916-923 ॥
तीर्थंकर के महान् पुण्य प्रताप से तथा आध्यात्मिक वैभव से प्रेरित, अनु प्राणित होकर तथा तीर्थंकर के विश्वकल्याणकारी अमर संदेश के प्रचार-प्रसार करने के लिये देवलोग भी सक्रिय भाग लेते हैं । उसके लिये समवसरण की रचना के साथ-साथ कुछ महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य करते हैं, उसको देवकृत अतिशय कहते हैं। देवकृत अतिशय :
देव रचित है चार दश, अर्ध मागधी भाष। आपस माही मित्रता, निर्मल दिश आकाश ॥ होत फूलफल ऋतु सबै, पृथ्वी काँच समान । चरण कमल तल कमल है, नभते जय-जय बान ॥ मंद सुगन्ध बयार पुनि, गंधोदक की वृष्टि । भूमि विष कंटक नहीं, हर्षमयो सब सृष्टि ॥ धर्म चक्र आगे रहे, पुनि वसु मंगल सार ।
अतिशय श्री अरिहंत के, ये चौंतीस प्रकार ॥ (1) सब ऋतुओं के फलपुष्प एक साथ होना :
तीर्थंकर के सातिशय पुण्य प्रताप से प्रकृति कण-कण में प्रभावित हो जाती है। तीर्थंकर जिस क्षेत्र में रहते हैं, योग्य समय में योग्य वर्षा होती है तथा वातावरण अत्यन्त पवित्र प्रशान्त होने के कारण तथा तीर्थंकर अहिंसा, मैत्रीभाव, विश्व मैत्री, प्रेम से प्रभावित होकर एक ही समय में सब ऋतुओं के फल-पुष्प, पुष्पित, पल्लवित हो जाते हैं।
परिनिष्पन्न-शाल्याविसस्यसंपन्मही तदा । उद्भूत हर्ष रोमांचा स्वामिलामादिवा भवत् ॥266॥
आ० पु० अ० 25 पृ० 631 भगवान के विहार के समय पके हुए शाली आदि धान्यों से सुशोभित पृथ्वी ऐसी जान पड़ती थी मानोस्वामी का लाभ होने से उसे हर्ष के रोमांच ही उठ आए
अकालकुसुमोझेदं दर्शयन्ति स्म पादपाः।
ऋतुभिः सममागत्य संद्धा साध्वसादिव ॥269॥ वृक्ष भी असमय में फूलों के उद्भद को दिखला रहे थे अर्थात् वृक्षों पर बिना समय के ही पुष्प आ गये थे और उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों सब ऋतुओं ने भय से एक साथ आकर ही उनका आलिंगन किया हो।