________________
[ 59 ]
जो विरोधी जीव एक-दूसरे की गंध भी सहन करने में असमर्थ थे सर्वत्र पृथ्वी तल पर उन प्राणियों में मैत्री भाव उत्पन्न हो गया था।
__जीवों में विरोध दूर होकर परस्पर में प्रीति भाव उत्पन्न करने में प्रीतिकर नामक देव तत्पर रहते थे। (4) दर्पण तल के समान स्वच्छ पृथ्वी होना :
स्वान्तः शुद्धि जिनेशाय दर्शयन्तीव भूवधूः।
सर्वरत्नमयी रेजे शुद्धादर्शतालोज्ज्वला ॥19॥ ह० पु०/अ० 3 सर्व रत्नमयी तथा निर्मल दर्पण तल के समान उज्जवल पृथ्वी रूपी स्त्री ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेन्द्र भगवान के लिए अपने अंतःकरण की विशुद्धता ही दिखला रही हो। जिनसेन स्वामी आदि पुराण में निम्न प्रकार वर्णन करते हैं- --
आदर्शमण्डलाकारपरिवर्तित भूतलः ॥25॥ आदर्श (दर्पण) के समान पृथ्वी मण्डल को देवलोग स्वच्छ, पवित्र, रत्नमय बना देते हैं। (5) शुभसुगन्धित जल की वृष्टि :
तदनन्तरमेवोच्चैस्तनिताः स्तनिताभिधाः ।
कुमारा वदाषुमैधीभूता गन्धोदकम् शुभम् ॥23॥ ह० पु० अ० 3 उनके बाद ही जोर की गर्जना करने वाले स्तनित कुमार नामक देव मेघ का रूप धारण कर शुभ सुगन्धित जल की वर्षा कर रहे थे।
(6) पृथ्वी शस्य से पूर्ण होना :
रेजे शाल्यादि सस्यौघेर्मेदिनी फल शालिभिः । जिनेन्द्र दर्शनानन्द प्रोद्भिन्न पुलकरिव ॥25॥ हरिवंश पुराण । तृतीय सर्ग
फलों से सुशोभित शालि आदि धान्यों के समूह से पृथ्विी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो दर्शन से उत्पन्न हुए हर्ष से उसके रोमाञ्च ही निकल आये हों।
जिस प्रकार भौतिक वैज्ञानिक युग में वैज्ञानिक लोग कृत्रिम वर्षा करते हैं तथा असमय में ही वैज्ञानिक साधनों से कम दिन में शस्य उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार देव लोग भी अपनी दैविक शक्ति के माध्यम से शस्यादि उत्पन्न करते हैं। (7) सम्पूर्ण जीवों को परमानंद प्राप्त होना :
विहरत्युपकाराय जिने परम बांधवे ।
वभूव परमानन्दः सर्वस्य जगतस्तदा ॥21॥ हरिवंश पु० सर्ग 3 परम बन्धु जिनेन्द्र देव के जगत् कल्याणार्थ विहार होने पर समस्त जगत को परम आनन्द प्राप्त होता था । जिस प्रकार जगत हितकारी विश्व बंधु तीर्थंकर के दर्शन से विहार से, समस्त जगत् को परम आनन्द प्राप्त होता है।