Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 82
________________ [ 61 ] करने की शक्ति को । आयुर्वेद में वर्णन है शाप और अनुग्रह शक्ति को प्रभाव कहते | अनिष्ट वचनों का उच्चारण शाप है । इष्ट प्रतिपादन को अनुग्रह कहते हैं । शाप या अनुग्रह प्रभाव कहते हैं; जो बढ़ा हुआ भाव हो, उसका नाम प्रभाव है कि कुछ रोग देव प्रकोप से होता है, एवं देव प्रसन्न से अर्थात् उनके सूक्ष्म दैविक उपचार से अनेक रोग भी दूर हो जाते हैं । यह वर्णन कल्याणकारक में जैनाचार्य उग्रादित्य, बौद्ध आचार्य वाग्भट अष्टांग हृदय में तथा हिन्दू आचार्य चरक, सुश्रुत अपने-अपने ग्रंथ में किये हैं— इसका वर्णन हमने भी संक्षिप्त चिकित्सा विज्ञान में किया है वहाँ से देखने का कष्ट करें । (12) धर्म चक्र - सहस्त्रारं हसद्दीत्या सहस्त्रकिरणद्युति । धर्म चक्रं जिनस्याग्रे प्रस्थानास्थानयोरभात् ॥29॥ विहार करते हों, चाहे खड़े हों प्रत्येक दशा में श्री जिनेन्द्र के आगे, सूर्य के समान कान्ति वाला तथा अपनी दीप्ति से हजार आरे वाले चक्रवर्ती के चक्ररत्न की हँसी उड़ाता हुआ धर्म चक्र शोभायमान रहता था । जदिमत्थए किरणुज्जलदिव्वधम्मचक्काणि । दट्ठूणं संठियाई चत्तारि जणस्स अण्छरिया | तिलोय पण्णत्ति 922 अ० 4 पृ० 280 यक्षेद्रों के मस्तकों पर स्थित तथा किरणों से उज्जवल ऐसे चार दिव्य धर्म चक्रों को देखकर लोगों को आश्चर्य होता है । आदि पुराण सहस्त्रारस्फुरद्धर्मं चक्र रत्नपुरः सरः ॥ 2561 तीर्थङ्कर के आगे हजार आरे वाले देदीप्यमान धर्मचक्र चलता है । जिस प्रकार चक्रवर्ती चक्ररत्न के माध्यम से षड्खण्ड को विजय करता है उसी प्रकार धर्म चक्रवर्ती तीर्थंकर भगवान् अन्तरंग सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचरित्र, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन्य, ब्रह्मचर्य आदि धर्मचक्र ( धर्म समूह) के माध्यम से अंतरंग सम्पूर्ण शत्रुओं को पराजय करके पहले स्वयं के ऊपर विजयी बने । जो आत्म विजयी होता है, वह विश्व विजयी होता है । इस न्याय अनुसार तीर्थङ्कर भगवान आत्म विजयी होने के कारण विश्व विजयी होते हैं । उस धर्म विजय के बहिरंग चिन्ह स्वरूप एक हजार (1000) आरा वाले प्रकाशमान धर्मचक्र तीर्थङ्कर के आगे-आगे अन्याघात रीति से चलता 1 चक्र अनेक प्रकार के होते हैं । प्राचीन साहित्य में एक अस्त्र विशेष को भी चक्र कहते थे जिनके माध्यम से चक्रवर्ती दिग्विजय करता है । युद्ध के समय में एक प्रकार की व्यूह रचना होती थी जिनका नाम चक्रव्यूह था । धर्म समूह को धर्म-चक्र कहते हैं । धर्म चक्र के माध्यम से जब तीर्थंकर अंतरंग समस्त शत्रुओं को परास्त करके आत्म विजयी होते हैं तब अंतरंग धर्मचक्र के चिन्ह स्वरूप मानो बहिरंग एक हजार आरे वाले देदीप्यमान धर्मचक्र तीर्थंकर के सम्मुख चलता है । महान तार्किक आचार्य कवि समंतभद्र स्वामी - स्वयंभूस्त्रोत में विभिन्न चक्रों का अलंकार पूर्ण चमत्कार वर्णन अग्र प्रकार किये हैं ।

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