Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 71
________________ [ 50 ] उस समवसरण रूपी धर्म महासभा में असंख्यात देव, करोड अवधि मनुष्य, लक्षावधि पशु विनम्र भाव से मित्रता से एक साथ बैठकर उपदेश सुनते हैं। दिव्य ध्वनि निश्रुत होकर पशु के कान में पहुंचने पर वह दिव्य ध्वनि पशु के भाषा रूप में परिवर्तित हो जाती थी। दिव्य ध्वनि देवों के कान में पहुँच कर देव भाषा रूप परिणमन कर लेती है। इसलिए दिव्य ध्वनि वक्ता के अपेक्षा निश्रुत अवस्था में एक होते हुए भी विभिन्न श्रोताओं के निमित्त से विभिन्न भाषा रूप परिणमन करने के कारण अनेक स्वरूप हैं, इसलिए दिव्य ध्वनि अठारह महाभाषा तथा सात सौ लघु (क्षुद्र) भाषा स्वरूप हैं। दिव्य ध्वनि सर्व भाषास्वभावी तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम् । प्रणियत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि ॥ स्वं स्तो 97 श्लोक । हे सर्वज्ञ हितोपदेश भगवन् ! आपकी वचनामृत सर्वभाषा में परिणमन होने योग्य स्वभाव को धारण किये हुए हैं। विश्व धर्म सभा (समवसरण) व्याप्त हुआ श्री सम्पन्न वचनामृत प्राणियों को उसी प्रकार तृप्त करता है जिस प्रकार अमृतपान से प्राणी तृप्त हो जाता है। योजनान्तर दूरसमीपस्थाष्टा-दशभाषा-सप्तदृतशत कुभाषायुत-तिर्यग्देव मनुष्यभाषाकार-न्यूनाधिक-भावतीत मधुर मनोहर-गम्भीरविशद वागतिशय सम्पन्नः भवनवासिवाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-कल्पवासीन्द्र-विद्याधर-चक्रवर्ती-बल-नारायण-राजाधिराज-महाराजार्धमहामहामण्डलीकेन्द्राग्निाँवायु-भूति-सिंह-व्यालादि-देवविद्याधरमनुष्यर्षितिर्यगिन्द्रेभ्यः प्राप्तपूजातिशयो महावीरोऽर्थकर्ता । एक योजन के भीतर दूर अथवा समीप बैठे हुए अठारह महाभाषा और सात, सौ लघु भाषाओं से युक्त ऐसे तिर्यञ्च, देव और मनुष्यों की भाषा के रूप में परिणत होने वाली तथा न्यूनता और अधिकता से रहित, मधुर, मनोहर, गम्भीर, और विशद ऐसी भाषा के अतिशय को प्राप्त, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी देवों के इन्द्रों से, विद्याधर, चक्रवर्ती, बलदेव. नारायण, राजाधिराज, महाराज, अर्द्धमण्डलीक, महामण्डलीक, राजाओं से, इन्द्र, अग्नि, वायु, भूति, सिंह, व्याल आदि देव तथा विद्याधर, मनुष्य, ऋषि और तीर्थञ्चों के इन्द्रों से पूजा के अतिशय को प्राप्त श्री महावीर तिर्यकर अर्थकर्ता समझना चाहिए। षट्खंडागमे जीवट्ठाणं-61 पृष्ठ सतपरुवणाणुयोगद्वारे .. दिव्य ध्वनि अक्षर-अनक्षरात्मकअक्खराणक्खराप्पिया। (क० पा०) दिव्य ध्वनि अक्षर-अनक्षरात्मक है। अनक्षरात्मकत्वेन श्रीतृश्रोत्रप्रदेश प्राप्ति समयपर्यंत..............."तदन्तरं च श्रोतृजनाभिप्रेतार्थेषु संशयादि निराकरणेन सम्यग्ज्ञान जनक..... (गो० जी०)

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