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बन जाते हैं। इसलिये उनके समवशरण में जन्म-जात परस्पर क्रूर सिंह, गाय, बिल्ली, चूहा, मोर, सर्प आदि एक साथ मित्रभाव से बैठकर भगवान दिव्य संदेश सुनते हैं।
(4) कवलाहार अभाव
केवली भगवान के कवलाहार (ग्रास रूप आहार) का अभाव पाया जाता है। उनकी आत्मा का इतना विकास हो चुका है कि स्थूल भोजन द्वारा उसके दृश्यमान देह का संरक्षण अनावश्यक हो गया है । अब शरीर रक्षण के निमित बल प्रदान करने वाले सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं का आगमन बिना प्रयत्न के हुआ करता है।
(5) उपसर्गाभाव
भगवान के धातिया कर्मों का क्षय होने से उपसर्ग का बीज बनाने वाला असातावेदनीय कर्म शक्ति शून्य बन जाता है। इसलिये केवल ज्ञान की अवस्था में भगवान पर किसी प्रकार का उपसर्ग नहीं होता । यह ध्यान देने योग्य बात है, कि जब प्रभु की शरण में आने वाला जीव यम के प्रचण्ड प्रहार से बच जाता है, तब उन जिनेन्द्र पर दुष्ट व्यन्तर, क्रूर मनुष्य अथवा हिंसक पशुओं द्वारा संकट का पहाड़ पटका जाना नितान्त असम्भव है, जो लोग भगवान पर उपसर्ग होना मानते हैं वे वस्तुतः उनके केवल ज्ञानी होने की अलौकिकता को बिल्कुल भुला देते हैं।
(6) चतुर्मुख(चारों तरफ प्रभु के मुख का दर्शन होना)
समवशरण में भगवान का मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रहता है किन्तु उनके चारों ओर बैठने वाले 12 सभाओं के जीवों को ऐसा भान (दिखता) होता है कि भगवान के मुख चारों दिशाओं में ही हैं। अन्य सम्प्रदाय में जो ब्रह्मदेव को चतुरानन कहने की पौराणिक मान्यता है उसका वास्तव में मूल बीज परम ब्रह्म रूप सर्वज्ञ जिनेन्द्र के आत्मतेज के द्वारा समवशरण में चारों दिशाओं में पृथक्-पृथक् रूप से प्रभु के मुख का दर्शन होता है ।
(7) सर्व विद्येश्वरता
केवलज्ञानावरण कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने से भगवान सर्व विद्या के ईश्वर हो जाते हैं क्योंकि वे सर्व पदार्थों को ग्रहण करने वाली कैवल्य ज्योति से समालंकृत हैं। द्वादशांग रूप विद्या को आचार्य प्रभा चन्द्र ने सर्व विद्या शब्द के द्वारा ग्रहण किया है। उस विद्या के मूल जनक ये जिनराज प्रसिद्ध हैं।
"सर्व विद्येश्वरता सर्व विद्या द्वादशांग-चतुर्दश पूर्वाणि तासांस्वामित्वं । यदि वा सर्व विद्या केवलज्ञानं तस्या ईश्वरता स्वामिता ॥"
क्रिया-कलाप, पृष्ठ 247, नंदीश्वर भक्ति