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सब विद्या ईश्वरपनो, नाहिं बढ़े नख-केश । अनिमिष दृग छाया रहित दश केवल के वेष ॥
गव्यूति शतचतुष्टय सुभिक्षता गगन गमनमप्राणि वधः ।
भुक्त्युपसर्गामावाश्चतुरास्यत्वं च सर्वविद्येश्वरता ॥40॥ अच्छायत्वमपक्ष्मस्पंदश्च सम प्रसिद्धनखकेशत्वं । स्वतिशय गुणा भगवतो घातिक्षयजा भवन्ति तेऽपि दशैव ॥41॥
नंदीश्वर भक्ति (1) 400 कोश भूमि में सुभिक्षता
जिस प्रकार सूर्य उदय होने पर सूर्य के प्रभाव से प्रभावित होकर अनेक क्षेत्र प्रकाशित हो जाता है, कमल खिलने लगते हैं, उसी प्रकार केवल ज्ञान होने के पश्चात् तीर्थंकर भगवान जिस क्षेत्र में रहते हैं उनको केन्द्रित करके 400 कोश अर्थात् 800 मील क्षेत्रफल प्रमाण भूमि में सुभिक्ष हो जाता है। तीर्थंकर भगवान दया, करुणा, विश्वप्रेम की साक्षात् मूर्ति होते हैं। दयादि भावों से तीर्थंकर के समीपवर्ती क्षेत्र तथा परिसर भी प्रवाहित हो जाता है उसके कारण सब जीव सुखी, सन्तुष्ट, धन-धान्य सम्पन्न, तथा निरोगी होते हैं। प्रकृति प्रभावित होने के कारण योग्य काल में उत्तम वृष्टि होती है जिससे वनस्पतियाँ पल्लवित होकर यथेष्ट फलपुष्प देते हैं । जिससे पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाती है। जिस प्रकार समुद्र तट में सम-शीतोष्ण जलवायु रहती है हिमालय के कारण हिमालय पर्वत निकटस्थ क्षेत्र शीतल होता है उसी प्रकार धर्मात्मा जीवों के कारण निकटस्थ क्षेत्र भी पवित्र अहिंसामय सुभिक्ष हो जाता है। पारीशीष न्यायानुसार दुष्ट, दुर्जन, पापी जीवों के कारण निकटस्थ क्षेत्र का परिसर भी दूषित दुर्भिक्ष पीड़ित हो जाता है।
(2) गगन-गमन__ पूर्व में वर्णन किया गया है कि केवल ज्ञान होने के पश्चात् भगवान् भूपृष्ट से 5000 धनुष ऊपर चले जाते हैं। पुण्य कर्म के प्रभाव से एवं उत्कृष्ट योग (ध्यान) शक्ति से भगवान आकाश में ही बिना किसी के अवलम्बन के आकाश में गगन-गमन करते हैं। पूर्व में वर्णन किया गया है कि एक सामान्य योगी चारण ऋद्धि मुनि, आकाशगामी विद्याधारी भी यदि आकाश में गमन करते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है।
(3) अप्राणिवध (अहिंसा)- "अहिंसा प्रधानात् तत्सन्निधौ वैरीत्यागः" जो अहिंसा को पूर्ण रूप से अपने जीवन में उतार लेते हैं उनके सानिध्य को प्राप्त करके हिंसात्मक जीव भी हिंसा भाव का त्याग कर देते हैं। तीर्थंकर भगवान पूर्ण अहिंसा, दया, करुणा की जीवन्त मूर्ति स्वरूप होते हैं। इसीलिये उनके चरण-समीप में आने वाले क्रूर से क्रूर जीव भी अपनी क्रूरता छोड़कर अहिंसा धारा से प्लावित होकर स्वयं अहिंसामय