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[ 37 ] ततोऽस्य परिनिष्क्रान्ति महाकल्याण संविधौ ।
महाभिषेकमिन्द्राद्याश्चक्रुः क्षीरार्णवाम्बुभिः ॥ 74॥ तदनन्तर इन्द्रादिक देवों ने भगवान् के निष्क्रमण अर्थात् तपः कल्याणक करने के लिये उनका क्षीर सागर के जल से महाभिषेक किया।
अभिषिच्य विभुं देवा भूषयाञ्चकुराहताः ।
दिव्यविभूषणैर्वस्त्रैर्माल्यैश्च मलयोद् भवैः ॥ 75॥ अभिषेक कर चुकने के बाद देवों ने बड़े आदर के साथ दिव्य आभूषण, वस्त्र, मालायें और मलयागिरि चन्दन से भगवान् का अलंकार किया।
देव निमित्त सुदर्शन पालकी पर तीर्थङ्कर भगवान मुक्ति रूपी कन्या को इस प्रकार विराजमान हुए जिस प्रकार वर उन्तमोत्तम वस्त्र, आभूषणों से अलंकृत होकर पालकी में बैठकर इच्छित कन्या को वरण करने के लिये प्रयाण करता है।
पदानि सप्ततामूहुः शिबिकां प्रथमं नृपाः । ततो विद्याधरा निन्युर्योम्नि सप्त पदान्तरम् ॥ 98 ॥
आदि पुराण ।पृ० 381 भगवान् की उस पालकी को प्रथम ही राजा लोग सात पंड तक ले चले फिर विद्याधर लोग आकाश में सात पैंड तक ले चले।
__स्कन्धाधिरोपितां कृत्वा ततोऽमूमविलम्बितम् ।
सुरासुराः खमुत्पेतुरारुढ प्रमदोदयाः ॥99॥ तदनन्तर वैमानिक और भवनत्रिक देवों ने अत्यन्त हर्षित होकर वह पालकी अपने कन्धों पर रखी और शीघ्र ही उसे आकाश में ले गये।
पर्याप्तमिदमेवास्य प्रमोर्माहात्म्य शंसनम् ।
यत्तदा त्रिदिवाधीशा जाता युग्यक वाहिनः ।।100॥ भगवान वृषभदेव के महात्म्य की प्रशंसा करना इतना ही पर्याप्त है कि उस समय देवों के अधिपति इन्द्र भी उनकी पालकी ले जाने वाले हुए थे अर्थात् इन्द्र स्वयं उनकी पालकी ढो रहे थे।
तदा विचकरूः पुष्प वर्ष मामोदि गुहकाः।
ववौ मन्दाकिनीसीकराहारः शिशिरो मरूत् ॥101॥ उस समय यक्ष जाति के देव सुगन्धित फूलों की वर्षा कर रहे थे और गंगा नदी के जलकणों को धारण करने वाला शीतल वायु बह रहा था।
प्रस्थान मङ्गलान्युच्चैः संपेठः सुरवन्दिनः।
तदा प्रयाणभेर्यश्च विष्वगास्फालिताः सुरैः ॥102॥ उस समय देवों के बन्दीजन उच्च स्वर से प्रस्थान समय के मंगल पाठ पढ़ रहे थे और देव लोग चारों ओर प्रस्थान सूचक भेरियां बजा रहे थे।