Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 61
________________ [ 40 ] सफेद वस्त्र से परिवृत उस बड़े भारी रत्नों के पिटारे में रखे हुए भगवान के काले केश ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो चन्द्रमा के काले चिन्ह के अंश ही हों। विभूत्तमाङ्गसंस्पर्शादिमे मूर्धन्यतामिताः। स्थाप्याः समुचिते देशे कस्मिश्चिदनुपद्रुते ॥ 206 ॥ 'ये केश भगवान के मस्तक के स्पर्श से अत्यन्त श्रेष्ठ अवस्था को प्राप्त हुए हैं, इसलिए उन्हें उपद्रव रहित किसी योग्य स्थान में स्थापित करना चाहिए । पाँचवाँ क्षीरसमुद्र स्वभाव से ही पवित्र है' इसलिए उनकी भेंट कर उसी के पवित्र जल में इन्हें स्थापित करना चाहिए । ये केश धन्य हैं जो कि जगत् के स्वामी भगवान् वृषभदेव के मस्तक पर अधिष्ठित हुए थे तथा यह क्षीरसमुद्र भी धन्य है, जो इन केशों को भेंटस्वरूप प्राप्त करेगा, ऐसा सोचकर इन्द्रों ने उन केशों को आदर सहित उठाया और बड़ी विभूति के साथ ले जाकर उन्हें क्षीरसमुद्र में डाल दिया। केवल बोध प्राप्त के लिए कठोर आध्यात्मिक साधन तीर्थङ्कर भगवान जब अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रहों को परित्याग करके निर्मम, निरंहकार, अनाशक्त भाव से अन्तरंग, बहिरंग आत्मसाधन में लीन हो जाते हैं। समन्तभद्र स्वामी ने तीर्थकरों के साधक जीवन बिताते हुए कहते हैं किबाह्य तपः परमदुश्चरमाऽऽचरस्त्व माध्यात्मिकस्य तपसः परिवहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरेऽस्मिन् ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने ॥ 83 ॥ ___ (वृहत् स्वयंभू स्तोत्र) तीर्थकर भगवान उपवास आदि बाह्य 6 तपश्चरण अन्तरंग विनयादि 6 तपश्चरण की वृद्धि के लिए आचरण करते हैं। ध्यानरूपी आध्यात्मिक प्रखर अग्नि से अन्तरंग एवं बहिरंग कल्मष को नष्ट करके अतिशयता को प्राप्त करते हैं। तीर्थंकर भगवान संसार के कारणभूत आर्त एवं रौद्र को त्याग करके धर्म एवं शुक्ल ध्यानरूपी ध्यान में संतत् लीन रहते हैं क्योंकि धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान आत्मोन्नति के लिए अत्यन्त समर्थ कारण हैं । जिस प्रकार अशुद्ध स्वर्ण-पाषाण को शुद्ध बनाने के लिए प्रखर अग्नि में बार-बार भावित किया जाता है, उसी प्रकार तीर्थंकर भगवान अनादि परम्परा से संचित कर्म मल को विनष्ट करने के लिए अभिरत धर्म एवं शुक्लध्यानरूपी अग्नि से स्वयं की आत्मा को भावित करते हैं। - दीक्षोपरान्त बोधि प्राप्त तक अथवा केवल ज्ञान प्राप्ति तक अखण्ड मौन साधना से आत्म विशुद्धि के लिए तत्पर रहते हैं। प्राचीन विश्व इतिहास स्वरूप आदिपुराण में भगवन् जिनसेन स्वामी तीर्थंकर के आध्यात्मिक वैभव बताते हुए कहते हैं कि

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