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यद्यपि इन तीर्थंकर देव के भोग्य वस्तुओं की परिपूर्णता थी तथापि वे जितात्मा थे और उनकी प्रवृत्ति नियमित रूप से अर्थात् संयमित रूप से होती थी इससे असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती थी ।
तीर्थंकरों के छद्मस्थकाल में आहार है परन्तु नीहार नहीं
तित्थयरा - तप्पियरा हलहरचक्की इ-वासुदेवाहि । पडिवासुभोगभूमिय आहारो णत्थि णीहारो ॥ ( त्रिलोकसार)
छद्मस्थ तीर्थंकर उनके माता-पिता, बलदेव, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण तथा समस्त भोगभूमि जीवों के आहार हैं परन्तु नीहार नहीं है ।
उपर्युक्त महापुरुष तथा भोगभूमिज जीव पुण्यशाली होने के कारण उनके शरीर की संरचना विशिष्ट होती है । वे लोग कवलाहार तो करते हैं परन्तु शौचक्रिया उनकी नहीं होती है । कवलाहार अर्थात् खाद्य, पेय आदि वस्तुओं का भोजन करना । यहाँ पर एक सहज प्रश्न होता है यदि भोजन है तो निश्चित रूप में मल निष्कासन क्रिया भी होनी चाहिये । परन्तु उपरोक्त तथ्य में एक वैज्ञानिक सत्य निहित है । उपरोक्त महापुरुषों की जठराग्नि एक विशिष्ट प्रकार की होती है कि उसमें डाली गई सम्पूर्ण खाद्य वस्तु पूर्णतः रस, रुधिर आदि रूप में परिणित हो जाती है । ऐसा तत्त्व नहीं बचता है जो व्यर्थ होने के कारण मल-मूत्र रूप से बाहर निकाल दिया जाये ।
आप लोगों के ध्यान में आया हुआ होगा कि एक निरोगी, शक्तिशाली जठराग्नि सम्पन्न व्यक्ति जो भोजन करता है वह उस भोजन से अधिक सार वस्तु को ग्रहण कर लेता है । इसलिये वह व्यक्ति योग्य, कम शौच करता है परन्तु जब वह व्यक्ति रोगी हो जाता है एवं जठराग्नि मन्द हो जाती हैं तब उस व्यक्ति के द्वारा भोजन किया गया पदार्थ से कम सार वस्तु ग्रहण किया जाता है जिससे वह अधिक शौच जाता है । कारण मन्दाग्नि से खाद्य वस्तु पूर्ण रूप से सार रूप से परिणमन नहीं होती है जिससे अधिक वस्तु मूल रूप से निष्कासन हो जाती है ।
आप लोगों को अवगत हुआ होगा कि एक स्वस्थ व्यक्ति जब कालरा (हैजा ), बदहजमी, अतिसार आदि रोगों से पीड़ित होता है तब वह पहले से अधिक शौच जाता है । इसका कारण क्या है ? इसका कारण यह है कि आरोग्य समय में खाद्य वस्तु अधिक रूप में रसादि रूप में परिणमन करती है परन्तु अस्वस्थ अवस्था में अधिक वस्तु मल रूप में परिणमन करके बाहर निकल जाती है ।
जल सहित ईंधन से अधिक धुआँ निकलता है परन्तु शुष्क ईंधन से कम धुआँ निकलता है । लकड़ी से जिस प्रमाण से धुआं निकलता है उससे बहुत कम जले हुए अंगार से निकलता है। कैरोसीन (मिट्टी का तेल) तेल के दीपक से अधिक धुआँ