Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ [ 24 1 है । उससे आहार का रस-भाव अमृतमय जीवन शक्तिपूर्ण दूध रूप में परिवर्तित होता है । इसलिये सन्तानोत्पत्ति होते ही नारियों के स्तनों में दूध की धारा बहने लगती है । जब एक साधारण स्त्री को अपने सन्तान के प्रेम वात्सल्य से प्लावित होने के कारण उसके शरीर में दूध का संचार हो सकता है तब जगत् के एकैक अकारण बन्धु विश्वप्रेम-मंत्री के जीवन-मूर्ति तीर्थंकर के सम्पूर्ण शरीर में दुग्ध समान धवल रक्तधारा का चार होना अर्थात् दुग्ध के समान धवल रुधिर होना कोई अनहोनी, कपोल-कल्पित, अतिशयोक्ति नहीं है । उपरोक्त कारणों से सिद्ध होता है कि तीर्थंकरों के रुधिर दुग्ध के समान धवल थे । (5) आदि का वज्र वृषभनाराच संहनन तीर्थंकर की अस्थि, अस्थि कीलक, अस्थिवेष्टन वज्रमय होता है । (6) अनंत बल-वीर्य - "जो कम्मे सुरास, धम्मे सुरा" अर्थात् जो कर्म में शूर वीर्यवान होता है वह धर्म में भी शूर वीर्यवान होता है । प्रत्येक कार्य करने के लिये शक्ति की नितान्त आवश्यकता है । उपनिषद् में कहा है- ' नहि बलहीनेन अयं आत्मा उपलब्धये' बलहीनों के द्वारा अर्थात् ही वीर्य के द्वारा आत्मा की उपलब्धि नहीं हो सकती है । आत्मा का उद्धार करने वाले तथा जगत् का उद्धार करने वाले तीर्थंकर को अनन्त बल वीर्य की नित्यान्त आवश्यकता ही नहीं अनिवार्य भी है । इसीलिये तीर्थंकर जन्म से ही अनन्त बलवीर्यवान होते हैं । (7) समचतुरस्ररूप संस्थान भगवान के शरीर का संगठन, स्थान, प्रमाण एवं आकार-प्रकार की अपेक्षा अत्यन्त सुन्दर समचतुरस्र संस्थान वाला था । ( 8 ) 1008 उत्तम लक्षणों का धारण करना भगवान का शरीर अनुपम सौन्दर्य का केन्द्र था । उनके शरीर में (1) श्रीवृक्ष, (2) शंख, ( 3 ) कमल, (4) स्वस्तिक, (5) अंकुश, ( 6 ) तोरण, ( 7 ) चमर, (8) श्वेत छत्र, ( 9 ) सिंहासन, ( 10 ) ध्वज, ( 11 ) मीन युगल, ( 12 ) दो कुम्भ, (13) चक्र, ( 14 ) समुद्र, ( 15 ) सरोवर, ( 16 ) नागेन्द्र भवन, ( 17 ) हाथी, ( 18 ) सिंह आदि 108 मुख्य लक्षण तथा 900 व्यञ्जन अर्थात् सामान्य लक्षण सब मिलाकर 1008 सुलक्षण से युक्त था । (9) सौरभ - सर्वोत्कृष्ट पुण्य परमाणुओं से उनका शरीर निर्माण होने के कारण उनके शरीर से नृप चम्पक के समान उत्तम गन्ध आती थी । (10) हित- मित- प्रिय वचन महापुरुषों का हृदय अत्यन्त मृदु होने से एवं उनके हृदय में "सर्व जनहिताय सर्व जन सुखाय' की भावना ओत-प्रोत होने से उस हृदय से निसृत ( निकला हुआ ) वचन भी हित- मित- प्रिय होता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132