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सौधर्मेन्द्र ने जय-जय शब्द का उच्चारण कर भगवान् के मस्तक पर पहली जल धारा छोड़ी उसी समय जय, जय, जय बोलते हुये अन्य करोड़ों देवों ने भी बड़ा भारी कोलाहल किया था।
___ सैषा धारा जिनस्याधिमूर्द्ध रेजे पतन्त्यपाम् ।
हिमाद्रेः शिरसीवोच्चर च्छिन्नाम्बु निम्नगा ॥120॥ जिनेन्द्र देव के मस्तक पर पड़ती हुई वह जल की धारा ऐसी शोभायमान होती थी मानो हिमवान् पर्वत के शिखर पर ऊँचे से पड़ती हुई अखण्ड जलवाली आकाश गंगा ही हो।
ततः कल्पेश्वरैः सर्वेः समं धारा निपातिताः । संध्याभ्ररिव सौवर्णैः कलशैरम्बु संभूतैः ॥121॥ महानद्य इवापप्तन् धारा मूर्धनीशितुः ।
हेलयैव महिम्नासौ ताः प्रत्यच्छन् गिरीन्द्रवत् ॥1221 तदनन्तर अन्य सभी स्वर्गों के इन्द्रों ने सन्ध्या समय के बादलों के समान शोभायमान जल से भरे हुए सुवर्णमय कलशों से भगवान् के मस्तक पर एक साथ अल धारा छोड़ी । यद्यपि वह जल धारा भगवान् के मस्तक पर ऐसी पड़ रही थी मानो गंगा सिन्धु आदि महानदियाँ ही मिलकर एक साथ पड़ रही हों तथापि मेरु पर्वत के समान स्थिर रहने वाले जिनेन्द्र देव उसे अपने महात्म्य से लीलामात्र में ही सहन कर रहे थे।
विरेजुरप्छटा दूरमुच्चलन्त्यो नमोऽङ्गणे ।
जिनाङ्ग स्पर्श संसर्गात् पापान्मुक्ता इवोद्ध्वंगाः॥123॥ __ उस समय कितनी ही जल की बूंदे भगवान् के शरीर का स्पर्श कर आकाशरूपी आँगन में दूर तक उछल रही थीं और ऐसी मालूम होती थीं मानो उनके शरीर के स्पर्श से पाप रहित होकर ऊपर को ही जा रही हों।
काश्चनोच्चलिता व्योम्नि विवभुः शोकरच्छटाः ।
छटामिवामरावास प्राङ्गणेषु तितांसवः ॥1240 आकाश में उछलती हुई कितनी ही पानी की बूंदे ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो देवों के निवासग्रहों में छींटे ही देना चाहती हों।
तिर्यग्विसारिणः केचित् स्नानाम्मरशीकरोत्कराः। . कर्णपूरश्रियं तेनुदिग्वधूमुखसङगिनीम् ॥125॥ भगवान के अभिषेक जल के कितने ही छींटे दिशा-विदिशाओं में तिरछे फैल रहे थे और वे ऐसे मालूम होते थे मानों दिशारूपी स्त्रियों के मुखों पर कर्ण फूलों की शोभा ही बढ़ा रहे हों।
निर्मले श्रीयतेरङ्ग पतित्वा प्रतिबिम्बिताः। जल धारा: स्फुरन्ति स्म दिष्टि वृद्धयेव या वृद्ध्येव संगताः ॥126॥