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मेरू पर्वत पर्यन्त नील मणियों से बनायी हुई सीढ़ियाँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो आकाश ही भक्ति से सीढ़ी रूप पर्याय को प्राप्त हुआ हो ।
ज्योतिः पटलमुल्लंङ्घय प्रययुः सुर नायकाः । अधस्तारकितi affथ मन्यमानाः कुमुद्वतीम् ॥65॥
क्रम-क्रम से वे इन्द्र ज्योतिष-पटल को उल्लंघन कर ऊपर की ओर जाने लगे । उस समय वे नीचे ताराओं सहित आकाश को ऐसा मानते थे मानो कुमुदिनियों सहित सरोवर ही हो ।
ततः प्रापुः सुराधीशा गिरिराजं तमुच्छ्रितम् । योजनानां सहस्वाणि नवत च नवैव च ॥66॥
तत्पश्चात् वे इन्द्र निन्यानवे (99) हजार योजन ऊँचे उस सुमेरू पर्वत पर जा पहुँचे ।
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मुकुट श्रीरिवाभाति चूलिका यस्य मूर्द्धनि । चुडारत्नश्रियं धत्ते यस्यामृतु विमानकम् 1671
जिसके मस्तक पर स्थित चूलिका मुकुट के समान सुशोभित होती है और जिसके ऊपर सौधर्म स्वर्ग का ऋतुविमान चूड़ामणि की शोभा धारण करता है ।
भूपृष्ठ से 790 योजन अर्थात् 31,60,000 मील ऊपर जाकर ज्योतिष्क विमानों का प्रारम्भ होता है। 790 से लेकर 900 यो० तक अर्थात् 190 यो० के मध्य में सम्पूर्ण ज्योतिष विमानों का अवस्थान है । ये सम्पूर्ण विमानों को लांघकर 98900 यो० अर्थात् 39,24,00000 मील ऊपर गमन करके विश्व का सर्वोच्च पर्वत सुमेरू शिखर पर पहुँचते हैं जिसकी ऊँचाई भू पृष्ठ से 99000 यो० अर्थात् 39,60,00000 मील है । इससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में मनुष्यों के पास अत्यन्त तीव्रगतिशील विमान था जिससे मनुष्य सुदूर आकाश यात्री होने में समर्थ था । ज्योतिष विज्ञान का वर्णन आगे किया जायेगा वहाँ से पाठक देखने की कृपा करें ।
भगवान का जन्माभिषेक
हर्ष पूर्व देव सहित विद्याधर चारण ऋद्धिमुनि शीघ्रातिशीघ्र सूर्य, चन्द्र, ग्रह नक्षत्रादि ज्योतिष विमानों को अतिक्रम करके गिरिराज सुमेरू शिखर पर पहुँचे । अनेक अकृत्रिम जिनालयों से मण्डित एवं अनंत बार जिनाभिषेक के कारण पूत सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करके सुमेरु के शिखर पर हर्षपूर्वक बाल सूर्य के समान श्री जिनेन्द्र भगवान् को इन्द्र ने विराजमान किया | जन्माभिषेक करने की भावना से उत्साहित होकर देव लोग जलचर एवं द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों से रहित क्षीर (दूध) के समान मधुर वाला पांचवें क्षीर समुद्र से कलशों से जल भरकर के लाये ।