Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 49
________________ [ 28 ] का कष्ट करें। उन ऋद्धियों के माध्यम से देवलोग विभिन्न वैचित्र्यपूर्ण रूपों को धारण करने में समर्थ होते हैं। पूर्वोपाजित पुण्य कर्म से जो देवलोक में उत्पन्न होते हैं, उनको उपरोक्त ऋद्धियाँ स्व-स्व पुण्य प्रभाव से यथा योग्य न्यूनाधिक प्राप्त होती हैं । वर्तमान विशेषतः देव लोगों का आगमन इस क्षेत्र में नहीं होने से तथा ऋद्धि सम्पन्न कोई विशेष ऋषि आदि का अभाव होने से उपरोक्त वर्णन कपोल कल्पित अभिरंजित प्रतिभास होता है । परन्तु उनको प्रत्येक द्रव्य में तथा जीव में अनन्त शक्तियों का परिज्ञान हो जायेगा तब उपरोक्त वर्णन उसके लिए अतिशयोक्ति रूप प्रतीत नहीं होगा। आधुनिक भौतिक विज्ञान को जानने वाले पाठकों को ज्ञात है कि एक ही वस्तु विभिन्न दर्पणों के माध्यम से क्षुद्र एवं वृहत् दिखाई देती है । समतल दर्पण में प्रतिबिम्ब वस्तु के सम परिमाण में रहता है । उत्तल दर्पण में प्रतिबिम्ब वस्तु के सम परिमाण से अधिक दिखाई देता है। ये सब विचित्रता पुद्गल की संरचना के माध्यम से होता है। छोटे कैमरे में अतिविशाल वृक्ष, मनुष्य, पर्वत आदियों के प्रतिबिम्ब अपने सूक्ष्म परिणमन के कारण प्रतिबिंबित हो जाते हैं । सिनेमा, टी० वी० आदि की रील में स्थित छोटे-छोटे प्रतिबिम्ब विद्युत शक्ति के माध्यम से विस्तृत होकर पर्दे पर विशाल रूप धारण करते हैं। एक छोटी-सी उद्बत्ती (अगरबत्ती) अग्नि के सम्पर्क से जलकर विस्तार को प्राप्त होकर धुआँ रूप से बड़े-बड़े प्रकोष्ठ को व्याप्त कर लेती है। एक छोटी-सी इलेस्टिक या रबर को खींचने से बहुत लम्बे हो जाते हैं। रबर के बैलून में वायु पूरित करने से बैलून फैलकर मूल बैलून से 100-200 गुणा बड़ा हो जाता है। इसी प्रकार देव लोग दैविक ऋद्धि-शक्ति से विभिन्न रूप धारण कर लेते हैं। जन्माभिषेक के लिये मेरू शिखर के लिए प्रयाण महान उल्लास से उल्लासित होकर सौधर्म आदि देव चतुनिकाय देवों सहित विभिन्न प्रकार वाद्य बजाते हुए, नृत्य करते हुए और अपने-अपने विमान और वाहन में आरूढ़ होकर त्रिभुवन के स्वामी तीर्थंकर की जन्म नगरी के ऊपर आकाश में आ पहुँचते हैं । आकाश से शीघ्रता से जमीन पर उतरकर नगरी में प्रवेश करके भगवान के पवित्र जन्म-गृह के आँगन में पहुँचते हैं। केवल इन्द्राणी जन्म प्रकोष्ठ में पहुँचकर सद्जात्य बाल तीर्थंकर को देखकर अत्यन्त आल्हादित होकर जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार कर जगदम्बा जिन माता की स्तुति करती है। मायामयी नींद से माता को युक्त कर उसके आगे मायामयी दूसरा बालक रखकर तीर्थंकर को उठाकर बाहर लाकर इन्द्र को देती है। वहाँ से इन्द्रादिक देव तथा विद्याधर लोग अपने-अपने वायुयान में बैठकर 99 हजार योजन ऊँचे सुमेरू शिखर की ओर प्रयाण करते हैं । जन्माभिषेक देखने के लिए कुछ चारण ऋद्धि-धारी मुनि महाराज भी सुमेरू शिखर की ओर प्रयाण करते हैं। कृतं सोपानमामेरोरिन्द्रनीलळराजत ।। भक्त्या खमेव सोपान परिणाम मिवाश्रितम् ॥640 आदि पुराण त्रयोदशपर्व

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