Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 44
________________ [ 23 ] का शरीर निर्माण होने के कारण बाकी शुभ परमाणु नहीं रहा । जिससे भगवान के शरीर के तुल्य अन्य शरीर की रचना नहीं हुई अर्थात् भगवान का शरीर एकमेव विश्व में अद्वितीय सुन्दर शरीर है । (2) स्वेद रहितता शरीर में जो मलांश है वह मलांश शरीर के विभिन्न द्वारों से निकलता है । जिस समय तरल मलांश रोम कूपों से बाहर निकलता है उसे स्वेद ( पसीना ) कहते हैं । परन्तु भगवान का शरीर सातिशय पुण्य परमाणुओं से बना होने के कारण उनके शरीर में मल का ही अभाव होता है । इसीलिये मल के अभाव में पसीना नहीं निकलता है । (2) निर्मल शरीर - मल-मूत्र आदि से रहित होने के कारण तीर्थंकर भगवान का शरीर अत्यन्त निर्मल होता है । (3) दूध के समान धवल रुधिर 1 मनुष्य के शरीर में दो प्रकार के रक्त कण होते हैं - ( 1 ) लोहित रक्त कण, और (2) श्वेत रक्त कण । लोहित रक्त कण शरीर के क्षय अंश को पूरित करता है एवं श्वेत रक्त कण में रोग प्रतिरोधक शक्ति होने के कारण अंग रक्षक के समान शरीर को बाह्य रोगाणु आदि से रक्षा करता है । वैज्ञानिक लोग विशेष करके मनोवैज्ञानिक, डॉक्टरों ने सिद्ध किया है जिनमें श्वेत रक्तकण अधिक होता है उनको रोग नहीं होता, यदि होता है तो किंचित् प्रमाण से होता है और शीघ्र ठीक हो जाता है । मनोवैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि जिनका आहार-विहार, आचार-विचार शुद्ध पवित्र सात्विक होता है उनमें अधिक श्वेत रक्तकण पाया जाता है और वे व्यक्ति अधिक रोग ग्रस्त नहीं पाये जाते । जिस-जिस अंश में विशुद्ध आचार-विचार, परिणाम वृद्धि होते जाते हैं उस-उस अंश में श्वेत रक्तकण वृद्धि को प्राप्त होते जाते हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार तीर्थंकर सतत् विशुद्ध से विशुद्धतर तथा विशुद्धतम सात्विक आचार-विचार में तल्लीन रहते हैं, इसलिये उनके सम्पूर्ण शरीर के रक्तकण दूध के सदृश श्वेत रक्त कण बन जाता है तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । एक कन्या ऋतुमति तथा विवाहित होने तक जब तक सन्तान उत्पन्न नहीं होती है, तब तक स्तन में दूध संचार नहीं करता है । परन्तु सन्तान उत्पन्न होते ही स्तनों में दूध रस संचार करने लगता है । क्या इसका मनोवैज्ञानिक रहस्य है ? जब तक सन्तान उत्पन्न नहीं होती है तब तक नारी के हृदय में वात्सल्य प्रेम का संचार नहीं होता है । तब तक नारी सामान्य स्त्री रहती है परन्तु माता नहीं । जब सन्तान उत्पन्न होती है तब नारी के हृदय में पवित्र वात्सल्य प्रेम की मंदाकिनी धारा बहने लगती है । तब सामान्य स्त्री प्रेम-दायिनी, वात्सल्य की साक्षात् जीवन-मूर्ति, ममतामयी माँ के रूप में परिवर्तित हो जाती है । उपरोक्त पवित्र उदात्त सेवा मनोभावों से उसके शरीर में एक प्रकार सूक्ष्म जैविक - रासायनिक प्रतिक्रिया होती

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