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[ 15 ] धाररावत स्थूल समायत कराकृतिः।
बभौ पुण्यद्रमस्येव पृथः प्रारोह सन्तति ॥ 87॥ ऐरावत हाथी की सूंड के समान स्थूल गोल और लम्बी आकृति के धारण करने वाली वह रत्नों की धारा ऐसी शोभायमान होती थी मानो पुण्य रूपी वृक्ष के बड़े मोटे अंकुरों की संतति ही हो।
नीरन्ध्र रोदसी रुद्ध्वा रायाँ धारा पतन्त्यभात । - सुरमै रिवोन्मुक्ता सा प्रारोह परम्परा ॥ 88॥ अथवा अतिशय सघन तथा आकाश पृथ्वी को रोककर पड़ती हुई वह रत्नों की धारा ऐसी सुशोभित होती थी मानो कल्पवृक्षों के द्वारा छोड़े हुए अंकुरों की परम्परा ही हो।
रेजे हिरण्मयी वृष्टिः खाङ्गणान्निपतन्त्यसो।
ज्योतिर्गण प्रभेवोच्च रायान्ती सुरसद्मनः ॥ 89।। अथवा आकाश रूपी आँगन से पड़ती हुई वह सुवर्णमयी वृष्टि ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो स्वर्ग से अथवा विमानों से ज्योतिषी देवों की उत्कृष्ट प्रभा ही आ रही हो। .
खाद् भ्रष्टा रत्न वृष्टिः सा क्षणमुत्प्रेक्षिता जनः ।
गर्भस्तुतिनिधीनां कि जगत्क्षोभादभूदिति ॥ 90 ॥ ____अथवा आकाश से बरसती हुई रत्नवृष्टि को देखकर लोग यही उत्प्रेक्षा करते थे कि क्या जगत में क्षोभ होने से निधियों का गर्भपात हो रहा है ।
खाङ्गणे विप्रकीर्णानि रत्नानि क्षणमावभुः।
खुशाखिनां फलानीव शातितानि सुरद्विपः ॥91॥ आकाश रूपी आँगन में जहाँ-तहाँ फैले हुए वे रत्न क्षण भर के लिए ऐसे शोभायमान होते थे मानो देवों के हाथियों ने कल्पवृक्षों के फल ही तोड़-तोड़ कर डाले
हो।
खाङ्गणे गणनातीता रत्नधारा रराज सा।
विप्रकीर्णेव कालेन तरला तारकावली ॥921 आकाश रूपी आंगन में वह असंख्यात् रत्नों की धारा ऐसी जान पड़ती थी मानो समय पाकर फैली हुई नक्षत्रों की चंचल और चमकीली पंक्ति ही हो ।
विद्यादिन्द्रायुधे किंचित् जटिले सुरनायकः ।
दिवो विगलिते स्यातामित्यसौ क्षणमैक्ष्यत ॥93॥ अथवा उस रत्न वर्षा को देखकर क्षणभर के लिए यहाँ उत्प्रेक्षा होती थी कि स्वर्ग से मानो परस्पर मिले हुए बिजली और इन्द्रधनुष ही देवों ने नीचे गिरा दिये