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कलशों के मुख कमलों से ढके हुए थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो हस्तकमल से आच्छादित हुए अपने दोनों स्तनकलश ही हों ॥11॥
नौवें स्वप्न में फूले हुए कुमुद और कमलों से शोभायमान तालाब में क्रीड़ा करती हुई दो मछलियाँ देखीं । वे मछलियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो अपने ( मरूदेवी के) नेत्रों की लम्बाई ही दिखला रही हों ||112|| दसवें स्वप्न में उसने एक सुन्दर तालाब देखा । उस तालाब का पानी तैरते हुए कमलों की केशर से पीलापीला हो रहा था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो पिघले हुए स्वर्ण से ही भरा हो ||113॥ | ग्यारहवें स्वप्न में उसने क्षुभित हो बेला (तट) को उल्लंघन करता हुआ समुद्र देखा । उस समय उस समुद्र में उठती हुई लहरों से कुछ-कुछ गम्भीर शब्द हो रहा था और जल के छोटे-छोटे कण उड़कर उसके चारों ओर पड़ रहे थे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो यह अट्टहास ही कर रहा हो ॥ 114 ॥ बारहवें स्वप्न में उसने एक ऊँचा सिंहासन देखा । वह सिंहासन स्वर्ण का बना हुआ था और उसमें अनेक प्रकार की चमकीली मणि लगी हुई थीं जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वह मेरू पर्वत के शिखर की उत्कृष्ट शोभा ही धारण कर रहा हो ||115|| तेरहवें स्वप्न में उसने एक स्वर्ग का विमान देखा । वह विमान बहुमूल्य श्रेष्ठ रत्नों से दैदीप्यमान था और ऐसा मालूम होता था मानो देवों के द्वारा उपहार में दिया हुआ अपने पुत्र का प्रसूतिग्रह ( उत्पत्ति स्थान ) ही . हो । 1111611
चौदहवें स्वप्न में उसने पृथ्वी को भेदन कर ऊपर आया हुआ नागेन्द्र का भवन देखा । वह भवन ऐसा मालूम होता था मानो पहले दिखे हुए स्वर्ग के विमान के साथ स्पर्द्धा करने के लिए ही उद्यत हुआ हो ||117|| पन्द्रहवें स्वप्न में उसने अपनी उठती हुई किरणों से आकाश को पल्लवित करने वाली रत्नों की राशि को देखा। उन रत्नों की राशि को मरूदेवी ने ऐसा समझा था मानो पृथ्वी देवी ने उसे अपना खजाना ही दिखाया हो ।।118 ।। और सोलहवें स्वप्न में उसने जलती हुई प्रकाशमान तथा धूम्ररहित अग्नि देखी । वह अग्नि ऐसी मालूम होती थी मानो होने वाले पुत्र का मूर्तिधारी प्रताप ही हो ||119|| इस प्रकार सोलह स्वप्न देखने के बाद उसने देखा कि स्वर्ण के समान पीली कान्ति का धारक और ऊँचे कन्धों वाला एक ऊँचा बैल हमारे मुखकमल में प्रवेश कर रहा है || 120
स्वप्नों का फल
स्वप्न के अनन्तर निद्रा भंग के पश्चात् जिनेन्द्र देव की माता उन महत्त्वपूर्ण स्वप्नों के यथार्थ रहस्य जानने के लिए स्नानादि करके शरीर को पवित्र बनाकर, जिनेन्द्र भगवान् के पिता के समीप जाकर, विनय से ब्रह्ममुहूर्त में देखे हुये स्वप्नों को बताकर उनके फल जानने के लिए जिज्ञासा की । जिनेन्द्र भगवान् के पिता विशेष ज्ञानी होने से स्वप्नों के यथार्थ फल अवगत करके अत्यन्त हर्ष उल्लासित होकर अग्र प्रकार के उत्तम वचन बोले