Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 19
________________ अध्याय ( xviii ) विषय 21. राज्य शासन 22. तप कल्याणक ( परिनिष्क्रमण कल्याणक) 23. दीक्षा विधि 24. दीक्षा पूर्व उपदेश, दीक्षा के लिये बन्धुवर्ग से अनुमति, अन्तरंग बहिरंग निर्ग्रन्थ दीक्षा, केशलोच 25. केशों का क्षीरसागर में विसर्जन 26. केवल बोध प्राप्त के लिये कठोर आध्यात्मिक साधन 27. तीर्थंकरों की आहार चर्या एवं दान तीर्थ, पंचाश्चर्य, रत्नवृष्टि, आहार दाता का महत्त्व, 28. केवल ज्ञान कल्याणक (केवल बोध लाभ ), अर्हत् अवस्था में पृथ्वी से 5000 धनुष अधर में रहना 29. केवलज्ञान के अतिशय 400 कोस भूमि में सुभिक्षता, गगन गमन, अप्राणिवध (अहिंसा), कवलाहार अभाव, उपसर्गाभाव, चतुर्मुख, सर्व विद्येश्वरता, अच्छायत्व, अपक्ष्मस्पन्दत्व (अपलक नयन), सम प्रमाण नख केशत्व 1 30. दिव्यध्वनि, दिव्यध्वनि का एकानेक रूप, दिव्यध्वनि सर्वभाषा स्वभावी, दिव्यध्वनि अक्षर-अनक्षरात्मक, दिव्यध्वनि की अक्षरात्मकता, दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक, दिव्य ध्वनि देवकृत नहीं, दिव्य ध्वनि देवकृत, दिव्य ध्वनि का महत्त्व 31. देवकृत तेरह अतिशय सर्व ऋतुओं के फल पुष्प एक साथ होना, निष्कंटक पृथ्वी होना, परस्पर मैत्री, दर्पण तल के समान स्वच्छ पृथ्वी होना, शुभ सुगन्धित जल की वृष्टि, पृथ्वी शस्य से पूर्ण होना, सम्पूर्ण जीवों को परमानंद प्राप्त होना, सुगन्धित वायु बहना, जलाशय का जल निर्मल होना, आकाश निर्मल होना, सम्पूर्ण जीव निरोगी होना, धर्मचक्र, चरण के नीचे कमलों की रचनादि होना 32. 18 दोष रहित तीर्थंकर भूख, प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, रोग, द्वेष, मोह, आश्चर्य, अरति, खेद, शोक, निद्रा, चिता, स्वेद । 33. विश्व धर्म सभा की रचना (समवशरण) गन्धकुटी, सिंहासन, अरिहंतों की स्थिति, सिंहासन के ऊपर, समवशरण में वंदनारत जीवों की संख्या अवगाहनाशक्ति की अतिशयता, प्रवेश-निर्गमन

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