Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 32
________________ [ 11 ] अद्वितीय पुण्य कर्म तीर्थंकर नाम कर्म प्रकृति को संचित करना पड़ेगा । बिना तीथकर पुण्य प्रकृति कोई भी तीर्थंकर नहीं बन सकता है और धर्म तीर्थ का समर्थ प्रवर्तक, प्रचारक, पोषक, संरक्षक नहीं बन सकता है । यह पुण्य कर्म इतना, अपूर्व एवं संचय करने में कष्ट साध्य है कि 10 कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण काल में भरतक्षेत्र में केवल 24 ही तीर्थंकर जन्म लेकर इस धरती को पवित्र बनाते हैं । तीर्थंकर बनने के लिये विशेषकर पूर्वभव का संस्कार, पुण्य, विश्व मैत्री, सद्भावना, सम्यग्दर्शन आदि की प्रबल प्रेरणा चाहिये । तीर्थंकर बनने के लिये पवित्र 16 कारण भावनाओं की आवश्यकता होती है । षोडश कारण भावना आह, किमेतावानेव शुभनाम्न आस्रवविधिरुत कश्चिदस्ति प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते-यदिदं तीर्थंकर नामकर्मानन्तानुपम प्रभावमचिन्त्य विभूति विशेष कारणं त्रैलोक्यं विजयकरं तस्यास्त्रव विधि विशेषोऽस्तीति । - जो यह अनंत और अनुपम प्रभाव वाला तीर्थंकर नाम कर्म है । दर्शन विशुद्धिविनय सम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोग संवेगौ शक्तितस्त्याग तपसी साधुसमाधि वैय्यावृत्त्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुत प्रवचन भक्तिरावश्यक परिहाणिर्मार्ग प्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकरत्वस्य ॥ 24 ॥ तत्त्वार्थ सूत्र | अध्याय 6 दर्शन विशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन करना, ज्ञान में सतत् उपयोग, सतत् संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति के अनुसार तप, साधु-समाधि, वैयावृत्त्य करना, अरिहंत भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचनभक्ति आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, मोक्ष मार्ग की प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव हैं । (1) दर्शन विशुद्धि - जिनेन भगवताऽर्हत्परमेष्ठिनोपदिष्टे निर्ग्रन्थलक्षणे मोक्षवर्त्मनि रुचि दर्शनविशुद्धिः । तस्या अष्टावङ्गानि निश्शङ्कितत्वं निःकाङ्क्षिताविचिकित्सा विरहता अमूढदृष्टित उपवहणं स्थितीकरणं वात्सल्य प्रभावना चेति । जिन भगवान अरिहंत परमेष्टि द्वारा कहे हुए निर्ग्रन्थ स्वरूप, मोक्ष मार्ग पर रुचि रखना दर्शन विशुद्धि है। उसके 8 अंग हैं । ( 1 ) निःशंकितत्व (2) नि:कांक्षिता (3) निर्विचिकित्सितत्व ( 4 ) अमूढदृष्टिता ( 5 ) उपवृ हूण ( 6 ) स्थिति - करण (7) वात्सल्य (8) प्रभावना । ( 2 ) विनय सम्पन्नता सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षमार्गेषु तत्साधनेषु च गुर्वादिषु स्वयोग्यवृत्या सत्कार आदरो विनयस्तेन सम्पन्नता विनयसम्पन्नता ।

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