Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वेदगो जो जं संकामेदि य जं बंधदि जं च जो उदीरेदि।। तं केण होइ अहियं द्विदि अणुभागे पदेसग्गे ॥६॥
११. एसा चउत्थी मूलगाहा । एदिस्से बत्तव्वं पयडि-विदि-अणुभाग-पदेसविसयारणं बंध-संकमोदयोदीरणा-संतकम्माणं जहण्णुकस्स-पदविसेसियाणमप्पाबहुअगवेसणं । तं जहा—'जो जं संकामेदि' त्ति वुत्ते संक्रमो गहेयब्यो । सो च पयडि
INDIAN विदि-अणुभाग-पदेपमेयभिण्णो जहण्णुकस्सपदविसेसिदो घेत्तव्यो । 'विदि अणुभागे पदेसग्नोतिक्रियणादशेचायडीहामिहामेत्य ही हादि त्ति णासंकिय; पयडियदिरित्ताणं द्विदि-अणुभाग-पदेसाणमभावेश पयडीए अणुन सिद्धत्तादो । 'जो जं बंधदि' त्ति एदेण बंधो पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसभेयभिएणो घेत्तव्यो । एस्थेव संतकम्मस्स वि अंतब्भावो वक्खाणेयब्यो । 'जं च जो उदीरेदि' ति एदेण विषयडि-द्विदिअणुभाग-पदेस मेयभिषणाए उदीरणाए उदयसहगदाए गहएं कायव्यं । 'तं केण होइ अहियं' इदि युत्ते बंधसंकमोदयोदोरणासंतकम्मवियप्याणं मज्झे कत्तो कदम केत्तिएणाहियं होह ति पुच्छा कया होइ । 'हिदि अणुभागे पदेसग्गे' इदि सुत्तावयको बंधसंकमोदीरणाणं संतकम्मोदयसहगयाणं विसयपदंगणट्ठो दट्ठन्यो । ण च पयडीए एत्थासंभयो आसंकणिजो; दत्तुत्तरत्तरादो। तम्हा बंधो संकमो उदयो उदीरणा
* जो जीव स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों में से जिसे संक्रमित करता है, जिसे बाँधता है और जिसे उदीरित करना है वह किससे अधिक होता है ।।६२।।
११. यह चौर्थी मूलगाथा है । जघन्य और उत्कृष्ट पदोंसे विशेषताको प्राप्त हुए प्रकृति, स्थिनि, अनुभाग और प्रदेशविषयक बन्ध, संक्रम, उदय, उदीरणा और सत्कर्माके अल्पबहुत्वकी गवेषणा करना इसका वक्तव्य है। यथा-'जो जं संकामेदि' ऐसा कहने पर संक्रमका ग्रहण करना चाहिए। और वह जघन्य और उत्कृष्ट पदसे विशेषताको प्राप्त होकर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशभेदसे अनेक प्रकारका ग्रहण करना चाहिए । 'द्विदि अणुभागे पदेस' इस वचन द्वारा यहाँ पर प्रकृतिका ग्रहण नहीं प्राप्त होता ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि प्रकृति के बिना स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका अभाव होनेसे प्रकृति अनुक्तसिद्ध है। 'जो जं बंधदि' इसप्रकार इस वचनद्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके भेदसे अनेक प्रकारके बन्धका ग्रहण करना चाहिए। तथा यहीं पर सत्कर्मके अन्तर्भावका भी व्याख्यान करना चाहिए । तथा 'जं च जो उदोरेदि' इसप्रकार इस वचनके द्वारा भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके भेदसे अनेक प्रकारकी उदयके साथ उदीरणाका ग्रहण करना चाहिए। 'त केय होइ अहियं ऐसा करन पर बन्ध, संक्रम, उदय, उदीरणा और सत्कर्मरूप विकल्पोंके मध्य किससे कौन कितना अधिक होता है यह पृच्छा की गई है। 'हिदि अणुभागे पदेसग्गे' यह सूत्रावयव सत्कर्म और उदय सहित बन्ध, संक्रम और उदीरणाके विषयको दिखलानेके लिये आया है ऐसा जानना चाहिए। यहाँ पर प्रकृतिका कथन असम्भव है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसका उत्तर पूर्व में ही दे आये हैं। इसलिए बन्ध, संक्रम, उदय, उदी