Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ पयडिपदेसहिदहिदीणमेयत्तविरोहादो । ण च मूलपयडिहिदीए पयडिभेदो असिद्धो, सगंतोलीणसयलुत्तरपयडि भेदाए तिस्से तदविरोहादो विवक्खियमोह० मूलपयडिहिदीए सेसणाणावरणादिमूलपयडिहिदीहिंतो भेदोववत्तीदो वा पयदत्थसमत्थणा कायव्वा ।
५. अधवा ण एत्थ मूलपयडिहिदीए एयत्तमत्थि, जहण्णहिदिप्पहुडि जाव उक्कस्सहिदि त्ति सव्वासि हिदीणं मूलपयडि हिदि त्ति गहणादो । एवं घेप्पदि त्ति कथं णव्वदे ? उवरि उक्कस्साणुक्कस्संजहण्णाजहण्णहिदीणं सामित्तपरूवणादो मूलपयडिहिदिहाणपरूवणादो च । तेण पयडि सरूवेण एगा हिदी सगहिदीभेदं पडुच्च हिदिविहत्ती होदि त्ति सिद्ध । जदि मूलपयडीए द्विदिविहत्ती अस्थि तो उत्तरपयडिहिदीणं णत्थि विहत्ती मूलुत्तरपयडीणं परोप्परविरोहादी त्ति वुत्ते अणेगाओ हिदीओ हिदिविहत्ती इदि परिहारो वुत्तो । जदि एकिस्से पयडीए हिदीणं सगहिदिविसेसं पडुच्च भेदो होदि तो उत्तरपयडिहिदीणं सगपरपयडीहिदिभेदं पडुच्च हिदिभेदो किण्ण जायदे विरोहादो। आता है । यदि कहा जाय कि मूलप्रकृतिस्थितिमें प्रकृतिभेद असिद्ध है, सो भी बात नहीं है,क्योंकि मूलप्रकृतिस्थितिके भीतर सब उत्तर प्रकृतियोंके भेद गर्भित हैं, अतः उसमें प्रकृतिभेदके माननेमें कोई विरोध नहीं आता । अथवा विवक्षित मोहनीयकी मलप्रकृतिस्थितिका शेष ज्ञानावरणादि मलप्रकृतिस्थितियोंसे भेद पाया जाता है, इसलिये इस दृष्टि से भी प्रकृत अर्थका समर्थन कर लेना चाहिये।
६५. अथवा प्रकृतमें मूलप्रकृतिस्थितिका एकत्व नहीं लिया है, क्योंकि जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितियोंका 'मलप्रकृतिस्थिति' पदके द्वारा ग्रहण किया है इसलिये मलप्रकृतिके साथ विभक्ति शब्दका प्रयोग बन जाता है।
शंका-मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति पदके द्वारा जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितियोंका ग्रहण किया है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-आगे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितियोंके स्वामीका कथन किया है और मूलप्रकृतिके स्थितिस्थानोंका भी कथन किया है, इससे जाना जाता है कि यहां मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति पदके द्वारा जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितियोंका ग्रहण किया है।
इसलिये प्रकृतिरूपसे एक स्थिति अपने स्थितिभेदोंकी अपेक्षा स्थितिविभक्ति होती है यह सिद्ध होता है।
__ यदि मूलप्रकृतिमें स्थितिविभक्ति है तो उत्तर प्रकृतियोंकी स्थितियोंमें भेद नहीं रह सकता है क्योंकि मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतियोंमें परस्पर विरोध है इस प्रकारका आक्षेप करने पर 'अणेगाओ हिदिओ हिदिविहत्ती' इस प्रकार परिहार कहा है।
यदि एक प्रकृतिकी स्थितियोंमें अपने स्थितिविशेषकी अपेक्षा भेद हो सकता है तो उत्तर प्रकृतियोंकी स्थितियोंमें अपने स्थितिभेदकी अपेक्षा और अपनेसे भिन्न अन्य प्रकृतियोंकी
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