Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा २२.]
हिदिविहती सरूवणिदेसो
* तत्थ पदं एगा हिंदी हिदिविहत्ती, अरोगाओ हिदीओ हिदिविहत्ती |
तं जहा,
४. तत्थ दोहं पि हिदिविहत्तीणं पुव्युत्ताणमेदमपदं उच्चदे | एगा हिंदी हिदिविहत्ती । विहत्ती भेदो पुषभावो ति एयहो । हिदीए वित्ती द्विदिविहत्ती जेणेवं द्विदिविहत्ती सदो हिदिभेदपरूवओ, तेण मूलपयडिट्ठिदीए विहत्तित्तं णत्थि, एक्किस्से भेदाभावादो । भावे वाण सा मूलपयडिद्विदी, एकिस्से पडीए हिदिबहुत्तविरोहादो त्ति उत्ते एगा हिंदी हिदिविहत्ति त्ति परिहारो vafaat | aaiकिस्से द्विदीए णाणतं ? ण, एकिस्से वि हिदीए पदेसभेदेण पयडिभेदेण च णाणतुवलंभादो । ण च पथडिपदेसभेदो हिदिभेदस्स कारणं ण होदि; भिण्ण
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ग्रहण किया है । यद्यपि प्रवाह रूपसे मोहनीय कर्म अनादि है पर यहां प्रत्येक समय में जो समयबद्ध प्राप्त होता है उसकी स्थिति ली गई है इसलिए स्थितिविभक्तिकी अवधि बन जाती है । उसमें जो प्रत्येक भेदको विवक्षा किये बिना सामान्य रूपसे मोहनीयको स्थिति प्राप्त होती है वह मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति है और प्रत्येक भेदकी जो स्थिति प्राप्त होती है वह उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति है । यहां सामान्य और विशेषरूपसे मोहनीयकी स्थितिका ही ग्रहण किया है इसलिए वह दो प्रकार की बतलाई है । नोकर्मका प्रकरण न होनेसे वहां उसकी स्थितिका ग्रहण नहीं किया है । सूत्रमें दो 'च' शब्द आये हैं सो वे दोनों ही समुच्चयार्थं जानने चाहिए । प्रथम 'च' शब्द द्वारा मुख्यरूपसे मूलप्रकृति स्थितिविभक्तिका और गौरूप से उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिका समुच्चय होता है । तथा दूसरे 'च' शब्द द्वारा मुख्यरूपसे उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिका और गौणरूपसे मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका समुच्चय होता है । शेष विवेचन स्पष्ट ही है ।
* अब उन दोनों स्थितिविभक्तियोंके अर्थपदको कहते हैं-- एक स्थिति स्थितिविभक्ति है और अनेक स्थितियां स्थितिविभक्ति हैं ।
४. अब पूर्वोक्त दोनों ही स्थितिविभक्तियोंके इस अर्थपदका खुलासा करते हैं । जो इस प्रकार है - एक स्थिति स्थितिविभक्ति है । विभक्ति, भेद और पृथग्भाव ये तीनों एकार्थवाची शब्द हैं । और स्थितिकी विभक्ति स्थितिविभक्ति कही जाती है । यतः स्थितिविभक्ति शब्द स्थितिभेदका कथन करता है, और इसलिये मूलप्रकृति की स्थितिमें विभक्तियां नहीं बनती है, क्योंकि एक में भेद नहीं हो सकता । यदि एकमें भेद माना जाय तो वह मूलप्रकृतिस्थिति नहीं ठहरती, क्योंकि एक प्रकृतिकी अनेक स्थितियां माननेमें विरोध आता है इसे प्रकार आक्षेप करने पर 'एगा हिदी द्विदिविहत्ती' इस प्रकार कहकर उस आक्षेपका परिहार किया है ।
शंका- एक स्थितिमें नानात्व कैसे हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एक स्थिति में भी प्रदेशभेद और प्रकृतिभेदकी अपेक्षा नानात्व पाया जाता है ।
यदि कहा जाय कि प्रकृतिभेद और प्रदेशभेद स्थितिभेदका कारण नहीं है' सो भी बात नहीं है, क्योंकि भिन्न भिन्न प्रकृति और प्रदेशों में पाई जानेवाली स्थितिको एक माननेमें विरोध
१ चे
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