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जैन दर्शन में, जीव और कर्म के संयोग की एक विशेष पद्धति एक विशेष प्रक्रिया रही है। इस पद्धति को आस्रव एवं बन्ध कहा जाता है। कर्म सूक्ष्म पुद्गल परमाणु-पुंज के रूप में होते हैं। उनका जीव की ओर आना आनव है, और कर्म पुद्गलों का तथा जीव का एक-दूसरे में आश्लेष हो जाना, बन्ध कहलाता है। जैसे स्नेह-सिक्त शरीर पर धूलिकणों का आना और फिर चिपक जाना। बन्ध तत्त्व, मोक्ष तत्त्व का भावात्मक विरोधी तत्त्व है, उसके चार भेद होते हैं - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । प्रकृति-बन्ध के आठ भेद हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष, नाम, गोत्र और अन्तराय । स्थितिबन्ध, जीव के साथ कर्म पुद्गलों के रहने के समय को कहा गया है। अनुभागबन्ध, कर्मों के फल-भोग को कहते हैं । विपाक भी कहते हैं। प्रदेशबन्ध का अर्थ है, जीव के प्रदेशों पर कर्म-परमाणुओं की संख्या। अनन्तानन्त कर्म-परमाणुओं को जीव ग्रहण करता है, इनको कर्म दलिक कहा गया है। कर्मबन्ध का हेतु है, आम्रव। आनव का परिणाम है, बन्ध । संवर और निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं। मूल तत्त्वों के परिज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। तत्त्वों के अपरिज्ञान से तथा अनाचरण से जीव बंन्धन में पड़ जाता है। बौद्ध दर्शन :
बौद्ध विद्वानों ने कषाय-प्रेरित कर्मों को बन्धन का कारण माना है। मानसिक, वाचिक और कायिक-ये तीनों प्रकार के कर्म विपाक द्वादश निदान के अन्तर्गत आते हैं। वैभाषिक बौद्धों ने कर्म के दो भेद स्वीकार किए हैं - चेतना और चेतनाजन्य । चेतना में मानसिक कर्मों का तथा चेतनाजन्य में वाचिक और कायिक कर्मों का समावेश होता है। चेतनाजन्य कर्म भी दो प्रकार के होते हैं - विज्ञप्ति एवं अविज्ञप्ति । जिन कर्मों का फल प्रकट रूप में होता है, वे विज्ञप्ति कर्म होते हैं। अविज्ञप्ति कर्म अदृष्ट रूप में रहते हैं, और कालान्तर में अपना फल प्रदान करते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन :
न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन के अनुसार कर्म का रूप है, अदृष्ट । कर्म के स्थान पर वहाँ अदृष्ट शब्द का प्रयोग किया गया है। अदृष्ट का अर्थ है - पुण्य एवं पाप, अथवा शुभ और अशुभ कर्मों का वह समुदाय, जो समयानुकूल फल प्रदान करता है। यही है, संसार के चक्र की वह स्थिति जिसको बन्ध कहा गया है। क्योंकि प्रत्येक जन्म में कर्म करने से वर्तमान तथा अनागत जन्मों में फल भोग का चक्र नित्य निरन्तर चलता रहता है, जिसको षोडश पदार्थों के तथा द्वादश प्रमेयों के तत्त्व-ज्ञान से रोका जा सकता है। यही है, अपवर्ग तथा मोक्ष । संसार के कारण चार
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