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आत्म-सम्बद्ध परमाणु पुंज को कार्मण शरीर कहा गया है। यही सूक्ष्म शरीर, अन्य स्थूल शरीर का, इन्द्रिय का और मन का जन्मदाता होता है। अन्य दर्शनों में कार्मण शरीर को लिंग शरीर कहा जाता है । संसार-चक्र का मूल हेतु यही है । समस्त विकारों की, विषयों की और विकल्पों की जड़ भी यही है। किसी वृक्ष की जड़ जब तक हरी-भरी है, तब तक उस पर पत्र, पुष्प और फल उत्पन्न होते ही रहेंगे। जड़ के सूख जाने पर न पत्र हैं, न फूल हैं, न फल हैं। यही स्थिति संसार और कार्मण शरीर की समझो।
संसार-चक्र है क्या? जीव और पुद्गल का परस्पर संयोग, जैसा कि नीर एवं क्षीर में होता है, अयोगोलक में तथा अग्नि में होता है। मोक्ष क्या है ? दोनों का ..
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वियोग । जीव, मात्र जीव रह जाए। कर्म, मात्र पुद्गल हो जाए। फिर संसार का चक्र कैसे घूम सकता है ? जीव हो गया निर्विकार, निर्विषय तथा निर्विकल्प। यही
है, परम सुख की, परम शान्ति की, परम आनन्द की । तीर्थंकरों की देशना का सार-तत्त्व भी यही है, कि पहले समझो, जानो कि बन्धन क्या, कितना है, कैसा है ? फिर उस को तोड़ने का पुरुषार्थ करो । जोड़ने में पुरुषार्थ किया है, तो उसको तोड़ने में भी करो ।
जीव, कर्म और परमात्मा :
भारत के समस्त दर्शन ग्रन्थों में तीन तत्त्वों पर मुख्य रूप में विचार किया है, विद्वानों ने - जीव, कर्म और परमात्मा । जीव की सत्ता अनादि अनन्त है । परन्तु उसकी तीन अवस्थाएँ हैं-शुद्ध, अशुद्ध और शुद्धाशुद्ध । अपने स्वभाव से जीव शुद्ध, है, पर कर्म के साथ संयोग होने के कारण वह अशुद्ध हो जाता है। कर्म विलग हो जाए तो शुद्ध है। परमात्मा परम शुद्ध है। वह सादि अनन्त है। क्योंकि संसारी दशा में to अशुद्ध होता है। मुक्ति देशा में वह शुद्ध है। अशुद्धि का कारण कर्म वहां पर है, - नहीं । कर्म की भी अपनी एक सत्ता है। वह तो सादि - सान्त है । व्यक्तिशः कर्म सादि-सान्त है, लेकिन प्रवाहरूपेण कर्म अनादि सान्त है, और अनादि - अनन्त भी रह सकता है। अभव्य जीव का कर्म अनादि - अनन्त है। क्योंकि उसकी कर्म-ग्रन्थि कभी खुलती नहीं । भव्य जीव का कर्म प्रवाहरूपेण अनादि- सान्त है और व्यक्तिशः सादि- सान्त है। वह उत्पन्न हुआ है, तो कभी न कभी उसका अन्त भी होगा। जैन दर्शन की अवधारणा है कि भव्य वह होता है, जिसमें मोक्ष जाने की योग्यता हो । जिस जीव में योग्यता न हो, तो वह अभव्य होता है। अपने विकार, विकल्प एवं विषय को जीतकर, प्रत्येक भव्य आत्मा, परमात्मा बन सकता है। कर्म-ग्रन्थि को तोड़ने भर की देर है ।
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