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आगरा ने प्रस्तुत भाग पर प्रस्तावना लिखने का स्नेह पूर्ण आग्रह स्वीकार किया, मैं उनके आत्मीय भाव के प्रति आभारी हूँ।
प्रतिभा मूर्ति ज्येष्ठ भगिनी पुष्पवती जी महाराज की सतत प्रेरणा से मैं (कर्मविज्ञान) प्रस्तुत ग्रंथ के लेखन में गतिशील रहा हूँ। अतः इनका स्मरण सहज ही हो जाता है।
मैं उन सभी सन्तों, मनीषियों, विद्वानों तथा ज्ञात-अज्ञात कृतिकारों एवं सहयोगियों के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ, जिनके सहकार से मैं इस ग्रन्थ को रोचक एवं आकर्षक रूप प्रदान करने में सक्षम हुआ ।
इस अवसर पर परमस्नेही श्रीचन्द जी सुराना "सरस" को भी नहीं भुलाया जा सकता, जिनके अथक प्रयास से ग्रन्थ का त्रुटि रहित मुद्रण और आकर्षक साज-सज्जा संभव हुई। वे अत्यधिक धन्यवाद के पात्र हैं।
परम उत्साही सुश्रावक डा. चम्पालाल जी देसरड़ा को भी विस्मृत नहीं हो सकता, जिन्होंने कर्मविज्ञान के द्वितीय एवं तृतीय भाग के प्रकाशन में अपना उदार आर्थिक सहयोग प्रदान किया।
FIRSK SUVIR
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- उपाचार्य देवेन्द्र मुनि
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