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जिस प्रकार वृक्ष के पोषक तत्त्वों का अवरोधक चट्टान है, इसी प्रकार संवर भी आसव का अवरोधक है, वह नये कर्मों का आगमन नहीं होने देता।
कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से आसव संसार का कारण है और संवर मोक्ष का। संवर द्वारा संसाररूपी वृक्ष को सुखा दिया जाता है। आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में आनव संसार का हेतु है और संवर मोक्ष का।
आम्रवो भव हेतु स्यात् संवरो मोक्ष कारणम् उनके इस कथन को प्रस्तुत खण्ड में विविध उदाहरणों और आनव तथा संवर की क्रिया-प्रक्रिया का वर्णन करके विशद रूप से समझाया गया है। आम्रवों से बचने और संवर का अनुसरण करने की प्रबल प्रेरणा पाठकों को मिलेगी।
कर्मविज्ञान के इस तृतीय भाग के छठे खण्ड में मुख्यतः आसव और संवर पर विशद विवेचन किया है। पहले खण्ड ४, ५ तथा ६ एक साथ ही द्वितीय भाग में रखने का विचार था, परन्तु छठा खण्ड बहुत विस्तृत हो गया, इस कारण पाठकों की सुविधा का ध्यान रखते हुए इसे अलग ही तृतीय भाग बना दिया गया है। आभार प्रदर्शन
सर्वप्रथम मैं श्रमण संघ के अध्यात्मनायक आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का स्मरण करता हूँ, जिनके मंगलमय आशीर्वाद से मैं अपनी अध्यात्म साधना में यशस्वी हो रहा हूँ। - मेरे लेखन में पूज्य उपाध्याय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी महाराज का आशीर्वाद उसी प्रकार सहायक रहा है जैसे दीपक को ज्योति पुंज के रूप में प्रकाशित होने में स्नेह (तेल)। उनका स्नेह, वात्सल्य, करुणा मेरे जीवन की चिरस्थायी निधि है। __परम स्नेही सन्तमानस महामनीषी मुनि श्री नेमीचन्द जी महाराज का सौजन्यपूर्ण सहयोग भी मेरे लिए अविस्मरणीय है। उन्होंने मेरे द्वारा लिखित निबन्धों को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से संशोधित/सम्पादित करके स्नेह-पूर्ण समर्पण और आत्मीय भाव प्रकट किया है।
उनका अध्ययन एवं विषय की पकड़ बहुत ही पैनी है। विषय को सर्वांगीण दृष्टि से प्रस्तुत करने की उनकी शैली भी सुन्दर है। मुझे अपने लेखन/सम्पादन कार्य में उनका निरन्तर सहयोग मिलता रहा है। मैं उनके इस आत्मीयता पूर्ण समर्पण भाव के प्रति आभारी रहूँगा। विद्वद्रल साहित्य मनीषी श्री विजय मुनि जी शास्त्री
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