________________
६.
७.
त्रिविक्रम का श्राख्यान, मधुबिन्दु दृष्टान्त - त्रिविक्रम नामक पुरुष वन में व्याघ्र से पीड़ित । जीर्ण कूप में शरस्तम्ब पकड़ कर लटका । चारों कोनों पर सर्प व नीचे अजगर तथा श्वेत व काले दो चूहे शरों को काटते दिखे । व्याघ्र भी उसे पकड़ने के प्रयत्न में लगा । उसे न पाकर तट वृक्ष पर पंजों का प्रहार | मधुकरियोंकी बाधा । शाखाओं से मधुबिन्दु का क्षरण ।
मुख में मधुबिन्दु पतन और उसका मिठास । जगत्स्वभाव । संसार अटवी, मरण महाव्याघ्र, शरीर कूप, चार कषाय सर्प, व्याधियां मधुकरी, विषयसुख मधुबिन्दु श्रायु शरस्तंब, दो पक्ष मूषक, नरक अजगर । इस प्रकार संसार में सुख एक मधुबन्धु प्रमाण और दुख मेरु समान । ६. दुर्जन संग के दोष
- चारुदत्त कथा | चम्पापुरी । भानु वणिक्, सुभद्रा गृहिणी । पुत्र का प्रभाव । मुनि श्रागमन । पुत्रोत्पत्ति व वृद्धत्व में तपग्रहण की भविष्य वाणी । पुत्रनाम चारुदत्त ।
कला प्रवीण । वनक्रीड़ार्थ गमन । कीलित विद्याधर का दर्शन । उसका मोचन व तीन औषधियों को बांटकर लगाने से क्षतपूर्ति । कृपाण लेकर गगन में दौड़ व प्रिया को छुड़ाकर पुनरागमन ।
११. विद्याधर का आत्मवृत्तान्त । दक्षिण श्रेणी, शिवपुर के कैशिक नामक विद्याधर का पुत्र श्रमित वेग । धूमशिख और गौरमुंड नामक मित्रों सहित हिरण्यरोम तपस्वी की सुकुमालिका नामक सुन्दर कन्या का दर्शन । कामवेदना | विवाह | धूमशिख का द्वेष व मुझे खीलकर प्रिया का अपहरण ।
१२. प्रमितवेग की कृतज्ञता । चारुदत्त का गृहागमन । सर्वार्थ वणिक् की पुत्री सुमित्रमती से विवाह । पत्नी के प्रति उपेक्षा । माता द्वारा चेटकों के साथ चारुदत्त को वेश्यावाट में प्रेषण । वसन्तसेना से प्रेम ।
८.
१०.
( ७६ )
श्रागमन की सूचना का आदेश । साधुओं का आगमन । राजा प्रिया के श्रृंगार में आसक्त ।
द्वारपाल का निवेदन । साधुत्रों का पड़गाहन व रसोई घर में श्रासन । राजा का गमन व आहारदान । पंचातिशय । मुनि निन्दा के कारण रानी को कुष्ठ व्याधि ।
१३.
चारुदत्त की वेश्यासक्ति व सुरापान । समाचार पाकर माता-पिता का तपग्रहण । बारह वर्ष में छत्तीस कोटि धन का नाश । भार्या द्वारा अपने आभूषणों का प्रेषण । निर्धन जान कलिंग सेना कुट्टिनी द्वारा त्याग का उपदेश । पुत्री द्वारा त्याग का निषेध । कुट्टिनी द्वारा नशा कराकर चारुदत्त का घर के बाहर प्रक्षेप ।
१४. लज्जित होकर चारुदत्त का गृहगमन । घर की दुर्दशा देख पश्चात्ताप । मामा के साथ वाणिज्यार्थ निर्गमन । उषीरावर्त नगर में कपास खरीदकर ताम्रलिप्ति को जाते समय वन में अग्नि से कपास का नाश । मामा को त्यागकर प्रियनगर गमन । पिता के मित्र सुन्दर द्वारा सम्मान । निषेध करने पर भी नौका द्वारा यवन द्वीप गमन ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org