Book Title: Kahakosu
Author(s): Shreechandmuni
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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५२८ ] सिरिचंवविरइयउ
[ ५२. १२. ८घरु चलिउ राउ मतेवि मंत
महिलग्गजण्हुकरसिरु नवंतु । प्रसिधेणुयाए अवसरु मुणेवि
नट्ठउ अहिमारउ गले हणेवि । एक्केण जे घाएँ मुउ महीसु
चिंताविउ तं पेर्छवि जईसु। १० कि किज्जइ पयणियपिसुणनेहु
हा हुउ महंतु उड्डाहु एहु ।। उवसमइ नेव विहिणावरेण
इय चितिऊण संजमधरेण । घत्ता-एउ कम्मु अम्हहिँ न किउ किउ अहिमारएण पाविढें । हा होसइ उड्डाहु जणे हउ अप्पाणउ एण अणिढें ।।१२।।
१३ दुवई--पाण वि परिहरेवि रक्खेवी समयहाँ छाय समइणा ।
इय रुहिरेण लिहिवि भित्तीयले अक्खरपंति समइणा ।। भावियविविहपरमवइराएँ
दूरोसारियविसयकसाएँ। जिणपडिमग्गण पणमियपाएँ
सइँ आलोप्रवि चत्तपमाएँ । भवियकमलबोहणप्राइच्चे
कयसंवेएँ पालियसच्चें। परिवज्जियाहारसरीरें
छुरियण उयरु वियारिवि धीरें। कालु करेप्पिणु जिणु सुमरतें
पत्तउ अमरवरत्तणु संतें। एत्तहे हुउ उड्डाहु महीवइ
मारिउ खवणएहिँ हा सुहमइ । ता तहिँ वीरसेणु संपत्तउ
नियवि वप्पु पाणहिँ परिचत्तउ । कुद्धएण मुणिमारणचित्तें
कुमरें विप्पियाइँ जपते । १० विहिवसेण कुड्डयले निएप्पिण
लिहियक्खरइँ ताइँ वाएप्पिणु। उवसंतेण तेण अहिणंदिउ
सूरिचरिउ अप्पाणउ निदिउ । घत्ता--बुज्झवि अक्खरत्थु समणसंघु वियाणेवि दोसविवज्जिउ ।
सिरिचंदुज्जलु गुणनिलउ सव्वेहिँ मि पडु जाविउ पुज्जिउ ॥१३।। विविहरसविसाले णेयकोऊहलाले। ललियवयणमाले अत्थसंदोहसाले ॥ भुवणविदिदनामे सव्वदोसोवसामे। इह खलु कहकोसे सुंदरे दिन्नतोसे ।।
मुणिसरिचंदपउत्ते सुविचित्ते एत्थ जणमणाणंदे । सत्यग्गहमरणविही एसो वावन्नमो संधी ।।
|| संधि ५२ ॥
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