Book Title: Kahakosu
Author(s): Shreechandmuni
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
५२. ८. १७ ]
इविदिह अच्छेप्पणु पुणु गउ आविवि पुण वि चरित्तो चालिउ चरियहँ पुरि कोल्लइरि पइट्ठउ तं पेक्खिवि भएण मुणि भग्गउ महु पावेण एण बहुवारउ संप पुणु मइँ पिसुधरेसइ इय चितेवि सन्नासु एप्पिण मरणकामु सहसा पुरबाहिरे कोल्लइरेसरु विभियचित्तउ साहु वि सुमरंत रयणत्तउ
पुन्नस समुहो गुणदीणो
अवरु सुहयरे
वणि धणवई
घत्ता --- उ सहसेणनामेण तह वइखाणसमरणेण मरेपिणु । साहिउ सासय सोक्खयरु उत्तमधु उवसग्गु निएप्पिणु ॥७॥
लच्छिकंत हे धू धण सिरी
सुरयसुहयरा
मोहरे विसयवारणं
सव्वसंतिए
पहयदुमई
सासुक
परिणिया तिणा
कहको सु
तववहूरए
चत्ततणुसिरी ८.१ हूय नंदसिरी ।
Jain Education International
८
।
दुवई - पुरे कुसुमउरे कुसुमसररिउपयपंकयभत्तिवंत प्रत्थि वणिदु उसहसिरिवल्लहु नामें उसहदत्तो ॥
धम्मसीह मुणिमग्गहो लग्गउ । बहु वाराउ एम खब्भालिउ । पुणरवि चंडें चंडें दिट्ठउ । इरु वि तो प्रणुमग्गें लग्गउ । किउ वयभंगु सिद्धिबहुवारउ । विहु वयविग्घ करेसइ | सइँ संखेवें आलोचे प्पिणु । थिउ पइसिवि मयहत्यिकलेवरे ।
तं जवि नियंतु नियत्तउ । सोहमे सुरत्तणु पत्तउ ।
तासु
उस हसेणो ।
तहिँ जि पुरवरे ।
वसइ धणवई ।
हो ।
सुकं ।
हूनं सिरी' | मयणरससरी ।
सहदत्तिणा ।
कइ विवासरा ।
अच्छिन घरे ।
लहेवि कारणं । [णिवरंतिए ] ।
जाय जई |
पिययमे गए । ors धणसिरी ।
For Private & Personal Use Only
[ ५२५
५
१०
१५
१०
५
१५
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675