Book Title: Kahakosu
Author(s): Shreechandmuni
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 655
________________ ५२० । सिरिचंदविरइयां [ ५१. १६ ९जे महु सुय सिहिमरुभूइ वे वि ते एहु एह हुउ जुयलु एवि । जा पुग्वजम्मे हिणि णिरुत्तु सा एवहिँ हूई एहु पुत्तु । १० पुत्तु वि भत्तारु हवेइ जेत्थु किह कीरइ रइ संसार तेत्थु । इय भणेवि वसंततिलय तवम्मि थिय सहुँ धणदेवे हयभवम्मि । घत्ता--अवरु वि एउ सुणेवि मिच्छामग्गहो भग्गउ । जिणमा सयलु वि लोउ सिरिचंदुज्जले भग्गउ ॥ १६ ॥ विविहरसविसाले णेयकोऊहलाले । ललियवयणमाले अत्थसंदोहसाले । भुवणविदिदनामे सव्वदोसोवसामे। इह खलु कहकोसे सुंदरे दिन्नतोसे । मुणिसिरिचंदपउत्ते सुविचित्ते पंतपयदसंजुत्ते । धणदेवकहाए इमो एक्कावन्नासमो संधी ॥ ।। संधि ५१ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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